Monday, March 26, 2018

प्रेम नगर अपवाद



तन इक  मायाजाल है, जीवन का परिधान
मन सुन्दर अमृत कलशा,तन माटी प्रतिमान1

ढोंगी ने चोला पहन, खूब करे पाखंड
भगवा वस्त्रों को मिला, कलुषित मन का दंड2

 

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 

मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 3


 
कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग4


मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान5


मौलिकता खोने लगी , स्वार्थ हुआ आबाद
पत्थर दिल में ढूँढ़ते, प्रेम नगर अपवाद 6


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़7 

शशि पुरवार 

Tuesday, March 20, 2018

मूर्खता की परछाई

समय के साथ सब बदल जाता है।  यह परम सत्य है। आदमी पहले दूसरों को मूर्ख बनाता था।  आज खुद को  मूर्ख बनाता है। आज मेरी मुलाकात अपनी ही परछाई से हो गयी।  अब आप कहेंगे मूर्ख है। कोई  परछाई से भी मिलता है। लेकिन हम मिले और जी भर कर मिले। जाने दीजिये आप सोचेंगे। आज सच में एक मूर्ख से पाला पड़ गया है। हमें क्या आप सोचते रहें। इंसान मूर्ख ही तो है।  आज स्वयं को मूर्ख कहने में हमें कोई कोताही नहीं। आभाषी दुनियां के मूर्खता पूर्ण व्यवहार ने हमें होशियारी सीखा दी है।हम कितने सीधे हैं।  लोग लल्लू भी है होसियार भी है।जब लम्बे समय से जुड़े  हुए लोग पूछते है। आप कौन है। क्या करतें है। सच पूछों दिल में छुरियां चल जाती है।क्या  कभी पढ़ते नहीं है। बस आजकल गप्पा बाजी करना ही शौक बन गया है।  खुद को उच्च कोटि का साबित करने के लिए बार बार बिना सिर पैर  की बात के बात करतें है। खैर जाने दीजिये।  आज मेरी परछाई ने मुझे ही मूर्ख कह दिया। हुआ यूँ -

 मेरी परछाई कैसी हो?
 प्रश्न अजीब था।  किन्तु तीर तरकश से निकल चुका था। वैसे भी हम जाने माने साहित्यकार है तो परछाई भी वही हुई। किन्तु उसने हमीं पर पलटवार किया।

 कितना स्यापा फैला रखा है। काम के न काज के।  बस दिन भर उजुल फुजूल लिखकर लोगों को बरगलाते हो।  कोई काम धाम नहीं है क्या ? किसे मूर्ख बनाते हो। खुद को।

जबाब सीधे दिल को भेद गया। घर में कोई बकर बकर नहीं सुनता तो हमने भी दुनिया को सुनाकर खुद को महान बना लिया। ससुरा आज तक किसी ने तारीफ नहीं की है। घर में पत्नी बच्चे, माँ - बाप के लिए  हम नकारा थे। कहतें हैं घर की मुर्गी दाल बराबर। सो थाली में कभी दाल  भी नहीं मिलती थी। हमने सोचा उल्लू क्या जाने अदरक का स्वाद। आज इंसान ने मूर्खता के पैमाने छलका दिए हैं। इस विचार ने हमें असीम शांति प्रदान की। किन्तु हमारी परछाई थी तो सत्य कैसे ना जानती। आज हमारे मूर्खता पूर्ण प्रश्न ने हमें मूर्ख सिद्ध कर दिया। 

 वैसे मूर्खता के कई प्रकार होते हैं। एक परिभाषा में मूर्खता को कैसे परिभाषित करें।  खुशफहमी मूर्खता को सर्वोपरि बनाती है। खुद का प्रचार करो, विज्ञापन करो और खुद को महान समझो।  हमारे इर्द गिर्द नजर  घुमाये ऐसे मूर्खो की भरमार है।  शर्मा जी जब देखो ऊँट की गर्दन ताने घूमते रहतें है।  सुना है बहुत बड़ा काम किए है।  किन्तु अडोसी पडोसी को पता भी नहीं है।  सो ससुरे उनके बुद्धिजीवी दिमाग को क्या जाने।  वो ऐसे तने रहतें है जैसे दुनियाँ भर का बोझ उन्हीं के सर पर है।  एक बार  सिंह अंकल हमें  बगीचे में मिल गए थे।  और बोले लल्ला क्या करतें हो
हमने लगे हाथो कह दिया - कवी है

कवी क्या होता है।  बेचारी दुखियारी आत्मा।

हमारा चौड़ा सीना सिकुड़ कर पिचके गुब्बारे सा हो गया।समाज का यही दोष है दूसरों की पतंग काटो और आनंद लो। सभी  रिश्ते  आभासी होने लगे।  खुद को महान समझने वाले मूर्ख अहंकार में एक दूसरे से कन्नी काटतें हैं। खुद की चार दीवारी में कैद अकेलेपन के साथी ऊँट की गर्दन ताने फिरते हैं।  किसी से बात करने के लिए गर्दन नीचे करनी होती है। जो कोई करेगा नहीं। हम आजतक इस दुनियादारी को समझ नहीं सके कि गर्दन ऊँची क्यों है।

   कल एक गोष्ठी में देखा शर्मा जी तन कर बैठे हुए थे।  अडोसी - पडोसी उनके कर्मो के बारे में नहीं जानते थे।  वे विशुद्ध लेखक थे। उजुल फिजूल लिखते लिखते खुद को महान लेखक बना लिया। बड़ी अदा से घूमते थे। जैसे वही अक्ल दराज बाकी मूर्खो की बारात। खुशफहमी  इंसान को जिंदादिल बना देती है।  कम से कम सर में शंका का चूरन रखने से खुशफहमी का तेल लगाना ज्यादा अच्छा  है। हम शर्मा जी को देखते ही  रह गए। कितनी  बड़ी हस्ती बन गए।  लोग एक फोटो चिपकाने के लिए तरसने है। एक तो चिपका ही दो। शर्मा जी खुश है। किन्तु उन्हें क्या पता लोग उनका उपयोग किये जा रहे हैं।फोटो शर्मा जी की चिपका कर अपना प्रचार कर रहें है।  जे हमरे खास मित्र  है तो हम भी खास बन गए।लोग एक दूसरे के कंधे पर पैर रखकर चढ़ने लगे है।  बेहद खुश है  कि हमने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। 

   आजकल हमारे एक मित्र जिन्हें  हमसे बेहद मोहब्बत है।  जब देखो हमारी  भाषा - विचारों को चुराते रहते हैं।खुद को महान सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहतें है। चोरी करके महान बन गए। उन्हें  आभासी दुनिया में  कह दिया मेरी रचना है तो झट से ब्लॉक  कर दिया।  एक दूसरे को उल्लू बनाने से अच्छा है खुद को उल्लू बना लो।हमने सोचा रचना चोरी की है गुण नहीं। खुद को खुश कर लिया।  

 अब ज्यादा क्या कहें। यही कहेंगे  खुद को मूर्ख  बनाना अपने स्वास्थ के लिए लाभदायक होता है।  हम तो यही कहेंगे खुद को खूब मूर्ख बनाओ। इसमें परमानन्द है। आप कहेंगे कैसे तो सुने -

 खुद को महान समझने से आप कुछ महान कार्य करने का प्रयास  करेंगे।इससे  आप व्यस्त रहेंगे।  कुछ अच्छा कार्य करेंगे। 
 खुद को देखने - समझने के आदी हो जायेंगे तो दूसरों की बातों पर ध्यान नहीं जायेगा।  बिन सिरपैर की बातों को नजरअंदाज करेंगे तो बीपी शुगर जैसी बिमारी कोसो दूर होगी।
  किसी बात की चिंता नहीं होगी क्यूँगी आप खास है , दूसरो को मूर्ख जरूर समझे। यह खुशफहमी आपको खुश रखेगी।  
  एक दूसरे को मूर्ख समझने की प्रथा से कुंठा, द्वेष, जलन से मुक्ति मिलेगी। और आप खुश फ़हम रहेंगे। 
 आपको अकेले में भी आनंद आने लगेगा।  घर वाले आपके कोप का भाजन नहीं होंगे।
 दोस्त, यार,  हमजोली  आपके मूर्खता को बुद्धिजीवी सा  मान देंगे।
 कोई सुने य ना सुने आप खुद को जरूर सुनेंगे।
 हर तरफ परमानन्द होगा। लोगों की छींटाकसी पर आप मुस्कुरायेंगे और अपनी मूर्खता का ख़िताब उन्हें दे देंगे कि मूर्ख है।  समझता नहीं है।
  तो खुशफहमी को पहनते रहें।  खुद को मूर्ख बनाते रहें।  जिंदादिली दिखाते रहें।
खुद को लोगों को झेलने का सुख देते रहें।खुद भी हम मित्रों को झेलते रहे।  

सभी हार्मोन कुशलता से कार्य करेंगे।  खुश फहमी बीमारी से मुक्ति दिलाएगी।  आप मुस्कुरायेंगे तो हम भी मुस्कुरायेंगे।  शुक्रिया आपने हमारी मूर्खता को तवज्जो दी।  मुर्खानंद की जय हो। 
शशि पुरवार 

जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित व्यंग्य 



Sunday, March 18, 2018

माँ हृदय की झंकार में -


माँ बसी हो, तुम हृदय की

साज में, झंकार में 
चेतना जागृत करो माँ
इस पतित संसार में.

आस्था का एक दीपक
द्वार तेरे रख दिया
ज्योति अंतर्मन जली
उल्लास, मन ने चख लिया
शक्ति का आव्हान करके
पा लिया ओंकार में. 
माँ बसी हो, तुम हृदय की
साज में, झंकार में

पाप फैला है जगत में
अंत पापी का करो
शौर्य का पर्याय हो, माँ
रूप काली का धरो
जन्म देती, जगत जननी
बीज को आकार में.
माँ बसी हो, तुम हृदय की 
साज में, झंकार में

छंद वैदिक, मंत्र गूँजे
भावना रंजित हुई
सजग होती आज नारी,
जीत अभिव्यंजित हुई
माँ नहीं, तुमसा जहाँ में,
 

नेह के उद्गार में.
माँ बसी हो, तुम हृदय की
साज में, झंकार में
शशि पुरवार 

आप सभी को चैत्र नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ 

Friday, March 9, 2018

मन की उड़ान


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 
मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 

लेखक बनते ही गए, जन जन की आवाज
पाठक ही सरताज है, रचना के दमसाज

बर्फ हुई संवेदना, बर्फ हुए संवाद
खुरच खुरच कर भर रहे, तनहाई अवसाद


प्रिय तुम्हारे प्रेम की, है विरहन को आस
दो शब्दों में सिमट गया, जीवन का विन्यास
 ५
मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान

कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग

शशि पुरवार



Thursday, February 22, 2018

भोर सुहानी

 
1

भोर सुहानी सुरमयी, पीत वर्ण श्रृंगार
हल्दी के थापे लगे, फूलों खिली बहार

2
भोर नर्तकी आ गयी, जगा धूप गॉँव
स्वर्ण मोहिनी गुनगुनी, सिमटी बैठी छाँव


सुबह ठुमकती आ गयी, तम से करे किलोल
पंख पसारे रश्मियाँ, स्वर्ण कुण्ड निर्मोल

4

भोर रचाये लालिमा, कलरव का अधिमान
दूर देश से आ रहा, किरणों का यजमान

5

कुहरे में लिपटी हुई, सजकर आई भोर
धूप चिट्ठियाँ बाँचती, कोमल कमसिन डोर

6
स्वर्णिम किरणों ने लिखा, स्याह भोर पर नाम
राहें पथरीली मगर, मंजिल का पैगाम
7

बाँच रहा है धुंध को, किरणों का संसार
ओढ़ रजाई प्रीत की, सर्दी आयी द्वार

8

पत्र ख़ुशी के लिख रहा, सर्दी का त्यौहार
रंग गुलाबी बाग़ में, गंधो का उपहार

9

कुहरे में लिपटी हुई छनकर आयी भोर
नुक्कड़ पर मचने लगा, गर्म चाय का शोर
10

तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती,हवा फटकती सूप

11

भोर स्वप्न वह देखकर, भोरी हुई विभोर
फूलों का मकरंद पी, भौरा है चितचोर
12
भोर सुहानी आ गयी ,लिये टमाटर लाल
धरती रक्तिम हो गयी ,देख गुलाबी थाल।
13
घिरा हुआ है मेघ से ,सूरज का रंग - रूप
रही स्वर्ण किरणें मचल, कैसे बिखरे धूप

14
धूप चिरैया ने लिए, अपने पंख पसार
पात पात भी कर रहे, किरणों से अभिसार। 
१५ 
भोर रचाये लालिमा, कलरव का अधिमान
दूर देश से आ रहा, किरणों का यजमान
१६ 
ओढ़ चुनरिया प्रीत की, सजकर आई भोर 
 
धूप रंगोली द्वार पर, मन है आत्मविभोर . 
 
शशि पुरवार

Thursday, February 8, 2018

बिन माँगी सलाह


बिन माँगी सलाह हमारे देश में कभी भी कहीं भी मिल जाती है। कौन से दो पैसे लगेंगे। वैसे भी लोगों को मुफ्तखोरी की आदत पड़ी हुई है।  मुफ्त की सलाह देने व लेने वालों की कमी नहीं है। कोई मक्खी मारने  बैठा है।  तो पौ बारह हो जातें है। 

जैसे बकरा हलाल करने का सुनहरा मौका मिल गया।  लो जी समय भी कट गया। दुःख - सुख भी बाँट दिए । सलाह पर अमल करना ना करना लोगों की मर्जी।  लोग सदा चिन्दियाँ 
उधेड़ने  के लिए तैयार है।  आखिर कुछ तो करना चाहिए। सबको उम्दा माल  दो टके में चाहिए 

होता है। कहीं भी सेल लगी भीड़ उमड़ने लगेगी। माल बेचने वाला भी खुश। लेने वाला भी खुश। 

वैसे भी हमारे  देश में सेल पढ़कर ही दिल बल्लियों सा उछलने लगता है। कमोवेश यही हाल बिन माँगी सलाह का भी है। हमारे एक परम मित्र है। बीमार हुए या कभी  कुछ हुआ तो डाक्टर को 
नहीं दिखाएंगे। झट इधर उधर दर्द का रोना रोयेंगे। मुफ्त के घरेलू नुक्से माँगेंगे।  चाहे व असर करे या ना करें। सहानुभूति और नुस्के अपना कितना असर दिखातें है वह व्यक्ति पर निर्भर करता है। 
   
        मिसेस शर्मा अक्सर परेशान रहती है।  कभी जी घबराना

पेट में दर्द या मन बैचेन रहना। अपना इलाज व स्वयं करती है। अडोसी - पडोसी से गप्पेबाजी और पंचायत से उनकी हर 

बीमारी उड़न छू हो जाती है। निगाहें किसी न किसी बकरे को 

हाकालाजी के लिए ढूँढती रहती  है। वह तो खुश है बेचारा कोई जबरन उनके हत्थे चढ़ जाए तो उसके बीमार होने की सम्भावना बढ़ सकती।  मुफ्त खोरी का भी अपना परम आनंद होता है। वैसे भी हमारे देश में  चलते फिरते सलाह देने वाले मिल जायेंगे। भले ही आप उनसे सलाह मांगे या ना मांगे। कुछ  लोगों की फितरत होती है आपको जबरजस्ती सलाह देंगे। 

        हाल ही हमरे  एक मित्र  ट्रैन  में सफर कर रहे थे।  पास की सीट पर  बैठे  एक सज्जन उनके पीछे हाथ क्या नहाधोकर  पीछे पढ़ गया।  भाईसाहब कैसे हो। भाईसाहब चेहरा देखकर लगता है बहुत काम करते हो। आपका परिवार अच्छा है। बेटी चेहरे से होशियार दिखती है।

 भाईसाहब ऐसा  करिए सुबह उठाकर ध्यान लगाया कीजिये। 

मन शांत रहेगा। ध्यान प्रभु शांति देता है। हमारे मित्रवर  को गुस्सा आ रहा था। जान न पहचान जबरन गले पड़ रहे हैं। 

फोन  पकड़ कर पतली गली से निकल लिए और वापिस आकर बर्थ पर सोने का जतन करने लगे। लेकिन उन सज्जन  शायद गुलबुलाहट हो रही थी। आखिर अपना प्रवचन किसे सुनाकर 

महान बनें।  तो जनाब ने हाथ मार कर हमारे मित्र को उठा 

दिया। भाईसाहब सुनिए।  यार हद हो गयी।  बात नहीं करनी है तब भी सुनो। फेविकोल  तरह महाशय चिपकने लगे। ऐसे सिरफिरे अक्सर मिलते रहतें है।  मित्रवर से कुछ कहते न बना।  बेचारा बकरा बिन कारण हलाल हो गया। 

             आजकल के बच्चों को फेसबुक मीडिया पर तस्वीरें  लोड करने की आदत है।  हर पल की खबर वहां न दो तो चैन नहीं मिलता। लेकिन साथ में  तारीफ के साथ मुफ्त की सलाह भी सुनो। हमारे एक परिचित थे। उनके रिश्तेदार की बेटी ने अपनी हवा में लहराती जुल्फों के साथ तस्वीर पोस्ट की। और जनाब ने बिन माँगी सलाह दे दी।  एकदम झल्ली लग रही हो। 

 दूसरा फोटो लगाओ।  ऐसा करो वैसा करो। हे राम। अब इन जनाब को सलाह देने के लिए किसने  कहा था।  जिसका जो मन होगा वह करेगा। चले आते हैं कैसे - कैसे लोग। यह तो 

सोशल मीडिया है जहाँ कुछ पसंद न आये तो ब्लॉक या डिलीट के ऑप्शन तैयार मिलते हैं। 

लेकिन हकीकत कड़वा करेला भी बन जाती है।  जो न निगल सकतें है न उगल सकतें है। दूसरों की क्या कहें। हम भी कभी लोगों को मुफ्त की सलाह देते रहते थे।  यह बात अलग है 

कि तजुर्बे ने हमें चुप रहना सीखा दिया।  बिन माँगी सलाह देना 

बहुतेरे लोगों की फितरत होती है। 

    आज सुबह सुबह हम बगीचे में शांति का आनंद ले रहे थे। 

 सीधे - साधे रास्तों पर भ्रमण कर रहे थे। कि अचानक पीठ पर पड़ी जोरदार धौल ने हमें ऊबड़खाबड़ रास्तों पर गिरने पर मजबूर कर दिया।  देखा तो धम्म से शर्मा जी टपक पड़े और सुबह की शांति का साइलेंसर बिगाड़ दिया।  

शर्मा -  क्या बात है मियां बहुत शांत खामोश लग रहे हो। 

  अरे कोई शांत रहना चाहता होगा तभी तो खामोश है। किन्तु जबरन होंठों पर ३२ इंच की मुस्कान चिपका बोले - नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।


 यह बत्तीस इंच की मुस्कान राजनितिक होती है।  सोच समझ
कर अपना दॉँव खेल जाती है। किसी को उसके भेद ज्ञात नहीं होतें है। बिन माँगे भी बहुत कुछ दूसरों को दे जाती है। सामने 

वाला चीत्त और वह पट। आज हमारी मुसीबत में काम आ गयी। 

 शर्मा  क्यों। भाभी नहीं है। क्या गरमा गर्मी हो गयी। बच्चे सब 

कुशल है। आजकल दुनियां में क्या - क्या नहीं हो रहा है। 

सुबह की हमारी शांति भंग करने शर्मा जी ने अपनी रामायण व 

महाभारत का पिटारा खोल लिया। जाने क्यों लोगों को किसी के फटे में टाँग अड़ाने की आदत होती है। आज हम सुनने के 

मूड में नहीं थे। मजबूरन उन्हें चुप करना पड़ा। 

 " शर्मा जी तबियत नासाज लग रही है। आराम करना चाहतें है "। 

 " अजी  मियां ! तो आराम करो।  किसने मना किया है। हम तो 

तुम्हारा मन बहला रहे थे। भैया देखो जब तुम्हरा जन्म हुआ था। वह दिन भी तय था।  समय चक्र ऐसा ही है।  नियत समय पर 

मृत्यु भी तय है। हर कार्य नियत समय पर होतें है। जीवन के 

चार चक्र होते है।"

 "
बस बस शर्मा जी, बुरा न मानो। भाई हमें हमारे हाल पर छोड़ 

दो। आपकी इन बातों में हमें कोई रूचि नहीं है। "

   बिना उनकी तरफ देखें हमने अपनी तशरीफ़ बढ़ा ली। उफ़

कितना दम घोटू माहौल  था। 

 एक तो हम बैचेन ऊपर से शर्मा हमें मारने पर तुले हुए थे।

 आज समझ  में आया बिन माँगी सलाह देना और सुनना कैसा लगता है।  हम भी तो कभी लोगों को  बिन माँगी सलाह क्या पूरा उपदेश ही दे देते थे। कुछ लोग कान पकड़ते हैं। तो कुछ 

लोग कान के साथ पूरा सर ही पकड़ लेते हैं। 

           मानवी प्रकृति ऐसी ही है। कोई अपना दुखड़ा रोता है।  

तो हम भी उसके दुःख में अपना दुःख ढूंढने लगते हैं। ऐसा दर्शाते है जैसे हम भी उसी दौर से गुजरें रहें  हैं। अति प्रेम भी जहर का कार्य करता है। कमोवेश वही हाल हमारा भी हुआ।  अदद घर बनाना चाहतें थे। जब भी कोई घर लेना चाहा। प्रिय मित्रों ने बिन मांगी सलाह की कुंडली मार दी। यह बहुत मँहगा है।  

यहाँ मत लो।  वहां मत लो। उम्र पड़ाव पर आ गए लेकिन घर नहीं मिला।  हम भी बिन मांगी सलाह के प्रेम भरी कुंडलियों में घूमते रहे और अमल भी करते रहे। एक कुटिया भी नहीं बना 

सके।  नए नए लेखक बने तो सीखा - लिखा - आगे बढे। किन्तु आज भी बिन माँगी सलाह की मक्खियाँ भिनभिनाती रहती है।

          अब सोचते हैं  कि लेखन वेखन छोड़कर एक 

सलाह  केंद्र खोल लें।  जहाँ सदैव बिन माँगी सलाह देने वालों का और सुनने वालों का स्वागत व समागम हो जाये।  इस नेक कार्य से समाज भी तरक्की करेगा।  चिंताएं ख़त्म होगीं सुखद सुहाने दिन आएंगे। आज मूड ख़राब था। लेकिन आपका सदैव स्वागत रहेगा। आप को जब भी हमारी सलाह की जरुरत महसूस हो।  हमारी संस्था तत्पर रहेगी। इसके लिए आपको कोई फ़ीस नहीं देनी है। आपका अनमोल समय हमारे लिए भी अनमोल होगा।  आप कभी भी संपर्क  कर सकतें है। हमारा पता है -  मुफ्त  सलाह केंद्र। हसोड़ वाली गली। व्यंग्यपुरी।  

शशि पुरवार 



Friday, January 26, 2018

हिंदी की चिन्दी



हिंदी दिवस की तैयारी पूरे जोश - खरोश के साथ की जा रही थी। आजकल हर वस्तु  छोटी होती जा रही है।  मिनी कपडे।  मिनी वस्तुएँ।  हर  वस्तु छोटी और मानव बड़ा।   मानव कद से या कर्म से कभी बड़ा हुआ है ? यह  शोध का विषय है। जब भाषा की बात आती है तो अपनी भाषा  अपनी है।  छेड़ छाड़ करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।  लोगों को  अपनी ही भाषाओँ के साथ छेड़छाड़ करके।  शब्दों को तोड़ मरोड़ कर जो विजेता सा अहसास होता है  वह आठवें अजूबे से कम नहीं है। आज कल लोग हिंदी की चिन्दी बनाकर हवा में लहरा रहें हैं। एक दुःस्वप्न की तरह हिंदी की चिन्दी रात भर हमें तड़पाती हैं।  जैसे वर्ष में एक दिन लोग  झंडा वंदन करके  दूसरे दिन उसे जमीन पर बिलखता छोड़ देते हैं, यह दुखद सत्य है।  उसी तरह हिंदी दिवस आते ही लोगों को उसकी महिमा का अहसास  होता है व लोग उसकी महिमा मंडल करने लगते हैं।

           पड़ोस में रहने वाले जैन साहब स्वयं को किसी पुरोधा से कम नहीं समझते हैं।  हिंदी तो माशा अल्लाह।  जो भी मिला उसे प्रेम से एक चिन्दी चिपका दी।  जो दूर से प्रणाम करें उसे भी चिन्दी के गोले फेंक ही देते हैं।
 
   आज की सुबह शर्मा जी के लिए शामत लेकर आयी।  हुआ यूँ  सुबह सुबह सैर को निकले शर्मा जी का रास्ता जैन साहब ने काट दिया और  बोले - तोंदू कहाँ चले !  लो जी मानवीय सभ्यता का  सुबह सुबह  क़त्ल  हो गया।
यह तो शर्मा जी का ह्रदय ही जानता है  कि कितना  तड़पा।  फिर भी  खोटी  मुस्कान के साथ बोले -- जय हो तोंदू के मित्र।
  जैन -- क्या हुआ शर्मा जी काहे बिलबिला रहे हो, गन्नू।
अब शर्मा जी गणेश से कब गन्नू बन गए , उन्हें  पता  ही नहीं चला।  नाम का कचूमर करना तो आम बात है।  हमारे चारों तरफ इस तरह के चलते फिरते पुर्जे नजर आते हैं। जिसे देखो वह अपनी अपनी चिन्दी की दुकान खोलकर बैठा है।  
               हिंदी के  लिए ऐसा कहना ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। आज  नेट पर अहिन्दी भाषी भी हिंदी सीखकर हिंदी के पुरोधा बन गए हैं।  जिसे देखो  हिंदी  की थाली  सजाकर कर परोस रहा है।  यह  अलग बात है  कि कर्ता - काल - अलंकार  थाली से गायब होते जा रहें है।  लोग इसी खुशफहमी में है कि हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर  अग्रसर है। हिंदी के पुरोधा हिंदी की बढ़ती जनसँख्या देखकर हैरान हैं।   फिर भी हिंदी के लिए जी जान से जुटे हुए पुरोधाओं  की कमी नहीं हैं।  इसी कार्य हेतु वर्मा जी  को सम्मनित किया गया।
 कहतें हैं  ना ! दूर  के ढोल सुहावने।  जब से  वर्मा जी सम्मानित होकर आएं है हिंदी को छोड़ अंग्रेजी को मुँह से लगाए फिरते हैं।
                 हुआ यूँ कि  समारोह में हिंदी भाषा  में विशिष्ठ कार्य करने हेतु वर्मा जी शामिल हुए।  खालिस हिंदी के पुरोधा ने सोचा वहां भी अपना रंग जमाएंगे।  किन्तु वहां का  परिदृश्य कुछ इस तरह था।

       निर्णायक गण व अन्य कविराज भी आमंत्रित थे।  लंबा चौड़ा कार्यक्रम था।  सरकारी महकमे  कुर्सी की शोभा बढ़ा रहे थे। भव्य आयोजन था।  बहुत सी गोलाकार कुर्सियाँ सम्मानीय विद्वजनों हेतु सजाई गयी थी।  खाने - पीने  का खालिश इंतजाम था।  किन्तु  वर्मा जी मुँह खोलते उसके पहले विलायती मेम इंग्रेजी धड़धड़ाते हुए समारोह का आकर्षण बन चुकी थी। वर्मा जी अपनी शान में कुछ कहने की हिमाकत करते उन्हें एक चिन्दी चिपका दी गयी ---   भैया आराम करो, खुशीयाँ मनाओ।  हिंदी में कार्य करने हेतु  सम्मानित किया जा रहा है। शर्मा जी  शर्म से पानी पानी हो गए। हिंदी के तथाकथित पुरोधा हिंदी की जगह अंग्रेजी में गुटर गुं कर  रहे थे।  हिंदी  की चिंदिया हवा में उड़ रही थी।  अँग्रेजी मेम की गिट पिट शर्मा जी के मुँह में ताला लगा गयी। इसे कहतें हैं भैया रंग लगे न फिटकरी फिर भी रंग चौखा।  दूर के ढोल सुहावने ही लगते हैं।
-- शशि पुरवार

Friday, January 12, 2018

बदल गए हालात


अम्बर जितनी ख्वाहिशें,सागर तल सी प्यास
छोटी सी यह जिंदगी, न होती उपन्यास 1

पतझर में झरने लगे, ज्यों शाखों से पात
ममता जर्जर हो गयी , देह हुई संघात 2

अच्छे दिन की आस में, बदल गए हालात
फुटपाथों पर सो रही, बदहवास की रात 3

मनोरंजन के नाम पर, टीवी के परपंच
भूले - बिसरे हो गए, अपनेपन के मंच 4

जिनके दिल में चोर है, ना समझे वो मीत
रूखे रूखे बोल के , लिखते रहते गीत 5

बंद ह्रदय की खिड़कियाँ, बंद हृदय के द्वार
उनको छप्पन भोग भी, लगतें है बेकार 6

बैचेनी दिल में हुई , मन भी हुआ उदास
काटे से दिन ना कटा, रात गयी वनवास 7 
 
शशि पुरवार 
 
 

Thursday, January 4, 2018

साल नूतन


साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने
आस के उम्मीद के फिर
बन रहें हैं नव ठिकाने

भोर की पहली किरण भी
आस मन में है जगाती
एक कतरा धूप भी, लिखने
लगी नित एक पाती

पोछ कर मन का अँधेरा
ढूँढ खुशियों के खजाने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

रात बीती, बात बीती
फिर कदम आगे बढ़ाना
छोड़कर बातें विगत की
लक्ष्य को तुम साध लाना

राह पथरीली भले ही
मंजिलों को फिर जगाने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

हर पनीली आँख के सब
स्वप्न पूरे हों हमेशा
काल किसको मात देगा
जिंदगी का ठेठ पेशा

वक़्त को ऐसे जगाना
गीत बन जाये ज़माने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने।
शशि पुरवार


आप सभी को नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ, वर्ष की शुरुआत है सभी मंगलमय हो यही कामना है - स्नेह बना रहे मित्रों सादर - शशि पुरवार


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