Friday, August 18, 2017

कुर्सी की आत्मकथा

कुर्सी की आत्मकथा --    
           कुर्सी की माया ही निराली हैकुर्सी से बड़ा कोई ओहदा नहीं है कुर्सी सिर्फ राजनीति की ही नहीं अपितु हर मालिक की शोभा बढाती है चाहे व कुर्सी सरकारी दफ्तर में हो या प्राइवेट दफ्तर में।  कुर्सी की अपनी पहचान है।   कुर्सी पर बैठने वालों की होड़ लगी रहती हैजो कुर्सी पर विराजावह राजा और जो  कुर्सी  के पास भटक भी न सके वह बेचारा बेचारा कुर्सी का मारा ,चुपचाप  उसे  तिरछी नजर से  देखा करता है दिल में धधकते शोलेआँखों से नूरहृदय की बेचैनी जीने ही नहीं देती है बेचारी कुर्सी किसी कन्या की भांति डरी -डरी अपने जीवन के दिन काटती है,  न जाने कब कौन सा साया उसके हाथ पैरों की मरम्मत कर देउसके जीवन में कब कोई शामत आये यह तो समय भी नहीं बता सकता हैकिन्तु  फिर भी कुर्सी की महिमा गजब की हैहर कोई कुर्सी के आगे नतमस्तक हैहर कोई  स्वप्न सुंदरी की तरह कुर्सी के सपने देखता रहता हैकिस्म किस्म के लोग कुर्सी पर अपनी तशरीफ़ रखने के लिए बेताब रहतें हैअलग अलग वजनदार लोग अपने वजन से कुर्सी का काया कल्प करते रहतें हैं और बेचारी कुर्सी  भार सहतेसहते बेदम होने लगती हैफिर भी  कुर्सी  चमक कम नहीं होती हैकुर्सी के दुश्मन कुर्सी पर बैठे लोगों कीभिन्न भिन्न अजीब सी  मुद्राओं व आकृतियों  को देखते रहतें हैकुर्सी पर बैठा व्यक्ति खुद को बादशाह समझ कर फरमान जाहिर करता रहता हैआखिर कौन है जो उस कुर्सी की व्यथा को समझेगाजिस कुर्सी ने ताज दिया हैवही कुर्सी अपने ताज की रक्षा करने में स्वयं असमर्थ है.
    हल्कादुबलापतला शरीर या भारीभरकम हाथी जैसा वजभार  तो बेचारी कुर्सी को ही सहना  पड़ता  हैजब भी कभी ऑफिस में कुर्सी के दिन फिरे हैं तो वह एसी की बंद दीवारी में कुछ पल ठंडी हवा का आनंद लेती है  और यदि दिन न फिरे तो  बॉस की लात  खाती हुई कुर्सीअपने बॉस  का फिर  भी दुलार करती हैअनेकों शरीर का भार ढोतेढोते,पसीने में नहाई हुई कुर्सी   जर्जर हो जाती हैपर मुँह से उफ्फ तक नहीं करती है .ऐसा कोई  महान व्यक्ति भी नहीं है जिसने कभी कुर्सी की व्यथा समझने का प्रयत्न किया हो.
    कुर्सी राजा होकर भी किसी चपरासी की चप्पल के समान  जीवन भर घिसती रहती हैकोई कभी  लात मारता है तो कोई हाथ तोड़ता हैकोई अपने दिल की सारी खुन्नस कुर्सी पर निकालता है तो  कहीं कोई जन सभा होती है तब सबसे ज्यादा खतरे में कुर्सी होती हैखाकी वर्दी वाले कुर्सी को छोड़ नेताओं की आवभगत व रक्षा में लगे रहतें हैंकब किसी के क्रोध की अग्नि में कुर्सी स्वाहा हो जायेयक्ष प्रश्न हैकोई  कुर्सी को उठाकर फेकता हैंकोई हाथपैर तोड़कर दिल की ज्वाला को शांत करता हैबदहाल में कुर्सी होती है और न्यूज़ चैनल की चर्चा में हमारे नायक रहतें हैऑफिसर,  नौकरी समाप्त करके  सेवानिवृत होतें हैकिन्तु कुर्सी की सेवा उसके मरणोपरांत ही समाप्त होती हैकभी कभी तो बेचारी कुर्सी इलाज के बिना ही दम तोड़ देती है  पुरानी जर्जर कुर्सी स्वामिभक्ति दिखाते हुए शहीद हो जाती है।  कुर्सी की वफादारी का इनाम उसे स्टोर रूम में फेककर दिया जाता हैआजकल रंग बिरंगी तितलियों की तरह कुर्सीयोँ  को भी अलग अलग रेक्जीन के रंगबिरंगे परिधान पहनाये जातें हैरंग रोगन करके किसी दुल्हन की तरह कुर्सी को सजाया जाता हैफिर भी कुर्सी का दुःख नहीं बदलता है।  बदले जमाने की तरह रंग बिरंगी तितलियाँ अपने दम तोड़ देती है और सरकारी स्थानों पर  लकड़ी व तार से बनी मजबूत कुर्सियां   जन्मों जन्मों तक वफादारी के वचन निभाती  हैंयही वह कुर्सी है जिसे सरकारी कर्मचारी बदलना नहीं चाहतें अपितु बदलने के नाम पर  जेब  गीली करतें हैं। 

                
कई  बार यह भी देखा गया है कि नोटों के हाथ लोग सेकतें  हैं और  बदनाम कुर्सी होती हैचाहे संसद की जमीं हो या न्याय की चौपालपुलिस चौकी हो या जेल की सलाखेंघर आँगन या दफ्तर हर जगह सजी हुई रंग बिरंगी कुर्सियां धीरे धीरे खोखली हो जाती हैफिर भी उनकी खस्ताहाली पर कोई ध्यान नहीं देता है।  यही कुर्सी जब अपने मालिक की कमर तोड़ती है तब अपने अंतिम पड़ाव में पल भर में पहुंच जाती है न्याय के लिए तरसती इन कुर्सियों की व्यथा को  न्याय कब  मिलेगा....?   बोझ तले मरती इन कुर्सियों का दर्द कौन समझेगा यह सभी प्रश्नयक्ष के समान हैकुर्सियों को आजादी,  बोझ मुक्त साँस लेने की प्रक्रिया  के लिए वैज्ञानिकों को कुछ योगदान देना चाहिएसाँस लेने का अधिकार बेजान वस्तुओं को भी होता हैआशा है भविष्य में  कोई तो होगा जो कुर्सी की रामकहानी किसी चैनल  के माध्यम से जन जन तक पहुचायेगाकभी तो बेचारी कुर्सी के दिन बदलेंगे ..... हम  इस जिजीविषा  कुर्सी के आगे  नतमस्तक  है.
 --शशि पुरवार


Tuesday, August 15, 2017

नेता जी का भाषण





गाँव के नवोदित नेता ललिया प्रसाद अपनी जीत के जश्न में सराबोर कुर्सी का बहुत ही आनंद ले रहे थे। कभी सोचा न था सरकारी कुर्सी पर ऐसे बैठेंगे। पाँव पर पाँव धरे पचपन इंच सीना चौड़ा करके (छप्पन इंच कहने की हिम्मत कहाँ?), मुख पर ३२ इंच की जोशीली मुस्कान के साथ नेता जी कुर्सी में ऐसे धँसे हुए बैठे थे मानो उससे चिपक ही गए हों। साम दाम दंड भेद की नीति से कुर्सी मिल ही गयीभगवान् जाने फिर यह मौका मिले या न मिलेपूरा आनंद ले लो। कुर्सी मिलते ही चमचे बरसाती पानी जैसे जमा होने लगे। जैसे गुड़ पर मक्खी भिनभिनाती है वैसे ही हमारे नेताजी के चमचे जमा होकर भन भन कर रहे थे।

तभी नेताजी का खास चमचा रामखेलावन खबर लेकर आया कि १५ अगस्त पर उन्हें तहसील के प्रांगण में झंडा वंदन करना है। अब तो जोश जैसे और दुगना हो गयानेता जी दिन में जागते हुए स्वप्न देखने लगे। लोगों के हुजूमतालियों की गडगडाहट के बीच बड़े स्वाभिमान से झंडे की डोरी खींचकर झटपट झंडा लहरा दिया। तभी धडाम की आवाज के साथ नेता जी उछलकर कुर्सी से गिर पड़े। दिवास्वप्न टूट गयादेखा तो दरवाजे का पर्दा उनके ऊपर पड़ा था और वे जमीन की धूल चाट रहे थे। यह देख रामखेलावन समेत सारे चमचे जोर जोर से बत्तीसी दिखाने लगे। नेताजी खिसियानी बिल्ली की तरह बरामदे का खम्भा नोचने लगे और उनकी खतरनाक मुख मुद्रा देखकर सारे चमचे ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।
नेता जी बड़बड़ाने लगेहम पर हँसते होकभी खुद ई सब किये होते तो पता चलता रस्सी खेंचना का होवत है। भक भक... अब तुम काहे दाँत दिखा रहे होकछु काम के न काज केचले आये परेशान करने... अब झंडावंदन करे का है तो सफ़ेद झक्क कुरता पायजामा और टोपी ख़रीदे की हैका है कि अब फोटो सोटो भी लिया जायेगा।

रामखेलावन-वह तो ठीक है प्रभुस्टैज पर कछु बोलना पड़ेगा। अब भाषन का देना है। वह भी तो सोचिये...

नेताजीअर्ररर... जे हम तो भूल ही गए। सारी ख़ुशी ऐसी हवा हुई कि नेताजी का मुँह एकदम पिचके हुए आम की तरह पोपला हो गया। चौड़ा सीना ऐसे पिचका जैसे गुब्बारे में छेद हो गया। पेशानी पर गुजली मुजली सलवटें ऐसे आयीं कि चिंता के मारे खुद के बाल ही नोचने लगे।
यह सब देख चमचा भी उसी रंग में रँगने लगा। इधर नेताजी की चहल कदमी बढती जा रही थी । उधर राम खेलावन पीछे पीछे टहलता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था।

नेताजी अब का होगाहमरी इज्जत का मलीदा बन जायेगाअब का भाषण देंगेकभी सुने ही नहीं। सकूल में भी सिर्फ लड्डू खाने जाते थेतीसरी कक्षा के बाद पढ़ने गए ही नहीं। दिन रात गैया को चारा खिलाते रहेगौ माता की किरपा से नेता बन गए। हे ससुरे भाषण वाशन काहे रखत हैं। २ चार लड्डू देई दो खाना खिलवइ दो... हो गया झण्डावंदन... आगे के शब्द खुद ही चबा कर नेताजी खा गए।
यह सब देखकर रामखिलावन समझ गया कि नेताजी की हालत पतली हो रही हैवह हिम्मत बढ़ाते हुए बोला -इसमें चिंता की कोनो बात नहीं है भाषण देखकर पढ़ लियो। अभी समय है थोडा प्रक्टिस कर लो। हमें गाना भी आवत है अभी परोग्राम को समय हैहम सिखा देंगे।
नेता जी-हाँ वही वही परोग्राम। तुम कौन से काले कोट वाले होजो हमरे खातिर भासन लिखोगेजे सब पढ़े लिखे का काम होवत हैवैसे जे बताओ इसे और का कहत हैं। स्वतंत्र दिवस या गणतंत्र दिवस या इन दपेंदंस डे... कहते हुए बाल खुजलाने लगे। गाना वाना तो हमसे होगा नहींटीवी पर देखत रहेसबरे धुरंदर सलूट मार के खड़े रहत हैंकोई गाना वाना नहीं गावत हैजे काम तो सकूली बच्च्वन का है।
चमचाहाँ फिर कहे चिंता करत होबस भाषण याद कर लोतैयार हो जावेगा। हम सिखा देंगे। एक एक गिलास गरम दूध पियोहलक में गरमागरम उतरेगी तो ससुरी जबान खुल जावेगी।
नेता जीपर हमरी तो हालत ख़राब है। इतने लोगन के सामने भासन... भासन कइसन कहेंपर बोलना तो पड़ेगा ही... नहीं हम अपना दिमाग लगाते हैं... अब हम याद कर लेंगे... "नमस्कार गाँव वालों..."
रामखिलावनहे महाराज ऐसे शोले की तरह नहीं कहते। कहिये मेरे प्रिय भाइयों और बहनों...
नेताजी -चल बेवह सबरी तुमरी बहन होगी... आजकल वक्त बदल गयो है।
रामखेलावनओ महाराज भाई बहनों को प्रणामनहीं कहे का हैतो बोलो भाई बंधू...
इधर चमचा कागज कलम के साथ टुन्न हो गयाउधर नेताजी को भी दूध जलेबी चढ़ गयी। दिन में सितारे नजर आने लगे। जोश में होश खो बैठे। स्वप्न में खुद को मंच पर खड़ा हुआ पाया। अपार जन समूह देखकर मुस्कुराने लगे और जैसे ही लोगों के हुजूम ने जयजयकार कीतो हाथ हिलाते हुए माइक तक आ गए। मेज को मंच समझ कर जोश के साथ ऊपर चढ़कर खूब दिमाग लगाया और भाषण शुरू किया --
भाइयों... भाइयों... और सबकी लुगइयों... आज हमरा बहुत बड़ा दिन हैहमरा सपना सच हो गयो है। कबहूँ सोचे न थे नेता बन सकत हैं। हे गाँधी जी कृपा रहीपहले लोग देश की खातिर जान दिए रहेदेश को गुलामी से बचाये रहे। गाँधी जी के वचनों पर चले... बुरा मत देखोबुरा मत कहोबुरा मत सुनो। आज स्थिति बदल गयी हैलोग बुरा ही देखत हैंबुरा ही करत हैं और बुरा ही सोचते हैं। पहले हाथ जोड़कर सबके आगे खड़े रहत थे। बात बात पर लात घूँसे मिलत रहेपर अब समय बदल गयो हैदो चार लात घूँसे मारोथोड़ा गोटी इधर का उधर करोथोड़ा डराओ धमकाओपैसे खिलाओ तो चुनाव का टिकिट भी मिल जावत है। पहले पढ़े लिखे लोग नेता बनत रहेतब भी देश बँटता थाआज कम पढ़े लिखे लोग नेता बने हैंतब भी देश छोटे छोटे राज्यों में बँट गवा है। सबरी पार्टी अपनी सत्ता चाहत है। शांति के सन्देश पहले से देत रहे सो आज भी देत हैं।



आज हर किसी को नेता बने का हैकुर्सी है तो सब कुछ हैआज हर कोई कुर्सी चाहत है। सबहुँ मिलकर घोटाले करोजितने भी पैसा आवत है उसे आपस में मिल बाँट कर खाई लोदेश की जनता बड़ी भोली है। ईमानदार टैक्स देता रहेकिसान मरता रहे। आज जेहि स्थिति बनी हुई है। एक बार कुर्सी मिल गयी फिर सब अपनी जेब में रहत हैं। काहे के संत्री मंत्रीदेश को पहले अंगरेज लूटट रहेअब देश के लोग ही लूटन मा लगे हैं। हर तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कुछ भी हो जाये कुर्सी नहीं छोड़ेंगेघोटाले करके जेल गए तो पत्नी या बच्चों को कुर्सी दिलवा देंगे। जे बच्चे वा खातिर ही पैदा किये हैं। कब काम आवेंगे। प्राण जाए पर कुर्सी ना जाएपहले देश को गुलामी से बचायाअब खुदही देश के तोड़न में लगे हैं। हर किसी की अपनी पार्टी हैसत्ता के खातिर हर कोई अपनी चाल चल रिया हैइसको मारोउसको पीटोदो चार लात घूसे चलाने वाले पहलवान साथ में राख लियोमजाल कोई कुछ करे। सारे साम दाम दंड भेद अपनाई लो पर अपनी जय जयकार कमतर नहीं होनी चाहिए।\


अब नेता बन गए तो देश विदेश घूम लोऐसन मौका कबहू न मिले। हम भी अब वही करहियें। अभी बहुत कुछ करे का है। बस फंड चाहिएजो काम करे का है सब काम के लिए फंडफंड में खूब पैसा मिलत हैथोडा बहुत काम करत है बाकी मिल बाँट कर खाई लेंगे। आखिर चोर चोर मौसेरे भाई भाई जो हैं ।
तुम सबरे गॉंव के लोगन ने हमें नेता चुना और हमेशा अइसन ही प्रेम बनाये रखना। आगे भी ऐसे ही हमें वोट डालना। तुम सब यहाँ आये हो हमें बहुत अच्छा लगालो झंडा वंदन कर दिए हैं । बच्चों ने गाना भी गा दिया। आज हम लाडू बहुत बनवाएं हैखूब जी भर के खाओ। हमें याद रखना। हर बार वोट देना फिर ऐसे ही गाड़ियों में भर के शहर घुमाने ले जायेंगे और खाना पैसा भी दिहें...

 
अभी जोर से बोलो जय भारत मैया की

शशि पुरवार 

Thursday, August 10, 2017

विकल हृदय


घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा
मनभावन, बनी तसवीर.

घन घन घन, घनघोर घटाएँ
गाएँ मेघ - राग मल्हार
झूमे पादप, सर्द हवाएँ
खुशियों का करें इजहार।

चंचल बूँदों में भीगा, सुधियों  
से खेले मन - अबीर
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!

अटे-पटे  से वृक्ष घनेरे
पात-पात  ढुलके पानी
दबी आग फिर लगी सुलगने
ज्यूँ  महकीं याद पुरानी  

शतदल के फूलों से गिरतें 
जल- कण, दिखतें हैं अधीर.
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!

विकल ह्रदय से, प्रिय दिन बीता
याद तुम्हारी गरमाई
दादुर, झींगुर गान सुनाएँ
रात अँधेरी  गहराई.

मंद रौशनी में इक साया
गुने शब्द-शब्द तहरीर.
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!
------- शशि पुरवार 
Image result for beautiful rainy seasons wallpapers        

Monday, July 31, 2017

नेह की संयोजना

Related image

हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
घेर लेती हैं हजारों 
अनछुई संवेदनाएँ। 

ज्वार सा हिय में उठा, जब 
शब्द उथले हो गए थे 
रेत पर उभरे हुए शब्द 
संग लहर के खो गए थे 

मैं किनारे पर खड़ी थी 
छेड़ती नटखट हवाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चलकर मिल न पाएँ 

स्वप्न भी सोने न देते 
प्रश्न भी हैं कुछ अनुत्तर  
आँख में तिरता रहा जल 
पर नदी सी प्यास भीतर।

रास्ते कंटक बहुत हैं 
बाँचते पत्थर कथाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 

हिमशिखर, सागर, नदी सी 
नेह की संयोजना है 
देह गंधो से परे, मन, 
आत्मा को खोजना है.

बंद पलकों से झरी, उस   
हर गजल को गुनगुनाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
    -- शशि पुरवार 

Thursday, July 27, 2017

गुलाबी खत

Image result for खत गुलाब

दिल, अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी

संग सखियों के पुराने   
दिन सुहाने याद करना। 
और छत पर बैठकर  
चाँद से संवाद करना। 

डाकिया आता नहीं अब, 
ना महकतें खत जबाबी।
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

सुर्ख मुखड़े पर ख़ुशी की   
चाँदनी जब झिलमिलाई।
गंध गीली याद की, हिय  
प्राण, अंतस में समाई। 

सुबह, दुपहर, साँझ, साँसे 
गीत गाती हैं खिताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

मौसमी नव रंग सारे  
प्रकृति में कुछ यूँ समाये  
नेह के आँचल तले, हर 
एक दीपक मुस्कुराये। 

छाँव बरगद की नहीं, माँ 
बात लगती हैं किताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी।
   -- शशि पुरवार 

Tuesday, July 18, 2017

महिला व्यंग्यकार और पुरुष व्यंग्यकार का अंतर्विरोध-



 हास्य-व्यंग्य लेखन में महिला व्यंग्यकार और पुरुष व्यंग्यकार का अंतर्विरोध- 

कमाल है जहां विरोध ही नही होना चाहिए वहां अंतर्विरोध ही अंतर्विरोध है। 
कहने को तो हम आधी आबादी हैं । भगवान शिव तक अर्धनारीश्वर कहलाते हैं।  पर पार्वती के पिता ही उसे  अग्निकुंड पहुंचा देते है । शायद मतलब निकालने के लिए ही हमें हृदेश्वरी का संबोधन  दिया जाता है। किन्तु जब मन और दिमाग की परतें खुलनी शुरू होती है तो बद दिमागी को उजागर होते देर नहीं लगती ।
                  यह एक कड़वा सच है कि समाज ने महिला को एक कमजोर लता मान लिया है। ऐसी कमजोर लता जिसका अस्तित्ववृक्ष के आधार के बिना संभव नहीं है। विवाह के बाद पत्नी को अर्धांगिनी कहतें हैं लेकिन महिलाओं को कदम कदम पर बाँध दिया गया है। बचपन में पिता व विवाह के बाद पति को परमेश्वर मानने का आदेश एवं उनके परिवार याने पूरे कुनबे को अपना सब कुछ न्यौछावर करने की अपेक्षा ऐसे में महिलाएं अपनी अभिव्यक्ति को आकार देने के लिए चूल्हा चक्की के बीच कलम उठाती भी हैं तो उन्हें अजूबे की तरह देखा जाता है। लेकिन हम आठवां अजूबा नहीं है। हम हैं तो आप हैं। 
        
          व्यंग तो कदम कदम पर बिखरा पड़ा है। हमारे व्यंगकार बंधुओं को व्यंग खोजने बाहर देखना पड़ता है किन्तु हमें बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। विषय वैविध्य की कमी नहीं है। पुरुष जहाँ पूरा की पूरा व्यंग है तो हम महिलाएं व्यंग को जीती हैं। आप कहीं भी देखें हर जगह महिलाएँ  व्यंग्य के घेरे में है। महिलाओं के ऊपर फिरके बाजी होती रहती है। तिलमिलाहट व्यंग के रूप में बाहर आती है। जब महिला व्यंग्यकार छपने जाती है तब तर्क वितर्क की रेखा। समय रेखा।  चुनौती की रेखा ..... सभी का सामना करना पड़ता है।    महिलाओं को इतनी बाधाएं हैं कि  उसे व्यक्त करना भी एक व्यंग्य आलेख ही होगा।  एक अघोषित लक्ष्मण रेखा खींची हुई है। लेकिन इसके लिए महिलाएँ भी कम जिम्मेदार नहीं है। तन मन से पूर्ण समर्पण किया है। जो लाभ न उठा सके वो मानव कैसा इसीलिए नारी सिमित दायरे में कैद होकर अपनी उड़ान भरती है। उन्हें स्वयं को अपने मन की इस जकड़न से मुक्त करना होगा। अपनी भाषा में ही नहीं अपने व्यक्तित्व को ही नया तेवर देना होगा।
      हर तरफ सवाल ही सवाल है।  आज हम सवालों से घिरे हैं। व्यंग्य में महिलाओं की स्थिति  क्या है महिला व्यंग्यकारों को  क्या व्यंग्य जगत में   वह स्थान मिला है जो पुरुषों को हासिल है।  आज की महिला व्यंग्यकार कहीं व्यंग्य बनकर न रह जाये!  काश आप लाजबाब होते तो हम भी कुछ जबाब होते।
              हुआ यूँ कि एक संगोष्ठी में जब शिरकत करने का मौका मिला तब भी यही अंतर्विरोध   खुलकर सामने आ गया।  कई साथी व्यंग्यकारों  को महिला व्यंग्यकारों की उपस्थिति नागवार  गुजरी।  कुछ महिलाओं को व्यंग्य के क्षेत्र में अपना नव लेखन दिखाने का मौका मिला।   लेकिन अंतर्विरोध  वहां भी देखने को मिला।   इतनी सारी महिलाओं में किसी भी साथी व्यंग्यकारों को कोई सम्भावना नजर नहीं आई !  यह अंतर्विरोध नहीं तो क्या है कोई बच्चा जब चलना सीखता है तो पहले गिरता  है।  फिर कदम साध कर चलना सीखता है।  नवजात शिशु चल नहीं सकता है।  नवांकुरों को सदैव इस तरह के मापदंडो से गुजरना होता है। 
          एक मुहावरा है -  समझदार आदमी दोस्तों के कन्धों का इस्तेमाल करना जानता है।  लेकिन व्यंग्य जगत में कोई किसी का दोस्त नहीं होता। इसलिए कहीं हम व्यंगकार इतना खुशफहम और आत्म मुग्ध हो जाते है कि हम साहित्य को भी नहीं बख्शते। कहते है साहित्य मर्यादित होता है। तो हम लेखक क्या उस मर्यादा को दरकिनार कर सकते है?  हम साहित्य की विधियों में पाले खींच रहे है। हास्य को व्यंग्य के आस पास नहीं देखना चाहते हैं। व्यंग्य शास्वत है। उसे संकुचित घेरे में डालने का फतवा देने में लगे हैं। यह क्या उचित है व्यंग्य में अंतर्विरोधों के चलते व्यंग्य का विकास रुकने लगा है।  व्यंग्य आलोचना में नहीं समेटा जा सकता है।  व्यंग्य साहित्य में  नमक का कार्य करता है। व्यंग्य एक नमक ही है जो साहित्य की हर विधा में उसका  स्वाद बढ़ाता है। गुदगुदाता है।  अधरों पर मुस्कान चाहिए तो व्यंग्य से बेहतर कोई मिठाई नहीं है।  । हम यही आशा व उम्मीद करतें हैं कि इन अंतर्विरोधों को नजर अंदाज करते हुए  हम मिलकर व्यंग्य के नए आयाम खोलेंगे। 
शशि पुरवार 

Friday, July 14, 2017

रात सुरमई




 चाँदी की थाली सजी,  तारों की सौगात
 अंबर से मिलने लगी, प्रीत सहेली रात। 
 २  
रात सुरमई मनचली, तारों लिखी किताब
चंदा को तकते रहे, नैना भये गुलाब।
 ३ 
आँचल में गोटे जड़े, तारों की बारात

अंबर से चाँदी झरी, रात बनी परिजात। 

  ४ 
रात शबनमी झर रही, शीतल चली बयार 
चंदा उतरा झील में, मन कोमल कचनार। 

 ५ 
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ६  
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत
७  
कल्पवृक्ष वन वाटिका, महका हरसिंगार
वन में बिखरी चाँदनी, रात करें श्रृंगार।
 ८  
तिनका तिनका जोड़कर, बना अधूरा नीड़

फूल खिले सुन्दर लगे, काँटों की है भीड़।  

 ९  
 गुल्ली-डंडा,चंग पौ, लट्टू और गुलेल
लँगड़ी,कंचे,कौड़ियाँ, दौड़ी मन की रेल

१०
भक्ति भाव में खो गए, मन में हरि का नाम
 प्रेम रंग से भर गया वृंदावन सुख धाम 
११
धूं धूं कर लकड़ी जले, तन में जलती पीर 
रूप रंग फिर मिट गया, राजा हुआ फ़क़ीर। 
१२  
 अपनों ने ही खींच दी, आँगन पड़ी लकीर 
  आँखों से झरता रहा, दुख नदिया का नीर  .
 १३  
धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग 
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 
१४  
चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में  रंग 
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग।
 १५ 
सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग  
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 
 शशि पुरवार 

Monday, July 10, 2017

सहज युगबोध


Related image
भीड़ में, गुम हो रही हैं 
भागती परछाइयाँ.
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

वक़्त की इन तकलियों पर 
धूप सी है जिंदगी 
इक ख़ुशी की चाह में, हर 
रात मावस की बदी. 

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ 
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

प्यार का हर रंग बदला 
पत दरकने भी लगा 
यह सहज युगबोध है या 
फिर उजाले ने ठगा। 

स्वार्थ की आँधी चली, मन 
पर जमी हैं काइयाँ  
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर  
फासले भी दरमियाँ 
दर्प की दीवार अंधी  
तोड़ दो खामोशियाँ 

मौन भी रचने लगे फिर 
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ। 
 शशि पुरवार 

Tuesday, July 4, 2017

व्यर्थ के संवाद

Related image

भीड़ में, गुम हो गई हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं 
खामोश सी तनहाइयाँ। 

वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है जिंदगी
इक ख़ुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी.

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ

प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा।
स्वार्थ की आँधी चली, मन
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ 




 मौन भी रचने लगे फिर
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ।
 शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com