Friday, April 1, 2016

मूर्खता का रिवाज




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मूर्ख दिवस मनाने का रिवाज काफी पुराना है, लोग पलकें  बिझाये १ अप्रैल की राह देखते हैं. वैसे तो हम लोग साल भर मूर्ख बनते रहतें है किन्तु फिर भी हमने अपने लिए एक दिन निर्धारित कर लिया है, भाई कहने के लिए हो जाता है कि १ अप्रैल  था। हम तो अच्छे वाले फूल हैं जो साल भर खुद को फूल  बनाते हैं। 

    अब आप सोचेंगे स्वयं को मूर्ख बनाना भी कोई  बहुत बड़ा कार्य है,नहीं कोई ऐसा क्यों करना चाहेगा। लेकिन कटु सत्य है भाई , आजकल तो अंतरजाल ने लोगों को मूर्ख बनाने का अच्छा जरिया  प्रस्तुत किया है. अलग अलग पोज की तस्वीरें, उन पर शब्दों की टूटी फूटी मार, हजारों के लाइक्स, वाह- वाह, अच्छों - अच्छों को चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं। व्यक्ति  फूल कर पूरा फूल बन जाता है।  न बाबा ना,हम किसी को मूर्ख नहीं बनाएंगे। 
              भाई अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपने सारे खेल यहीं छोड़ गए और देशी लोगों ने उसे बड़ी शिद्दत से अपनाया है। खेल अपने अलग अलग रूपों में जारी है. आज देश की जनता छलावे में आकर रोज फूल बन रही है.  जनता तो रोज नित नए सपने दिखाए जाते हैं, रोज नयी खुशबु भरा अखबार आँखों में नयी चमक पैदा करता है।  राम राज्य आएगा  की तर्ज पर, राम राज्य तो नहीं किन्तु  रावण और अराजकता का  राज्य चलने लगा है।  नए नए सर्वेक्षण होते हैं।  हम तो पहले भी मूर्ख बनते थे आज भी बनते है।  अच्छे दिन आयंगे परन्तु अच्छे दिन आते ही नहीं है। हम हँसते हँसते मूर्ख बनते हैं,  मूर्खता और मुस्कुराने का सीधा साधा रामपेल है।   सपने दिखाने वाले अपने सफ़ेद पोश  कपड़ों में  नए चेहरे के साथ विराजमान हो जाते हैं।  साथ ही साथ आयाराम गयाराम का खेल अपने पूरे उन्माद पर होता  है। 
    आजकल व्यापारी भी बहुत सचेत हो गएँ है. बहती गंगा में हर कोई हाथ धोता है।  एक बार हम आँखों के डाक्टर के पास गए, उन्होंने परचा बना कर  आँखों का नया कवच धारण करने का आदेश दिया। हम कवच बनवाने दुकान पर गए , आँख का कवच यानि चश्मा, हमें लम्बा चौड़ा बिल थम दिया गया ।  २००० का बिल देखकर हम बहुचक्के रह गए। 
             अरे भाई ये क्या किया इतना मंहगा .......... आगे सब कुछ हलक में अटक गया. चश्मे का व्यापारी बोला - भाई साल भर में १०,००० के कपडे  लेते हो और फेंक देते हो,  किन्तु चश्मे के लिए काहे सोचते हो. वह तो सालभर वैसा ही चलता है , न रंग चोखा न फीका। भैया जान है तो जहान है। अब का कहे हर कोई  जैसे उस्तरा चलाने के लिए तैयार बैठा है । भेल खाओ भेल बन जाओ। 

 त्यौहार पर हर व्यापारी मँजे हुए रंग लगाता है,तो फल - फूल ,तरकारी कहाँ पीछे रहने  वाले है। आये दिन मौका देखकर व्यापारी चौका लगा देते हैं। जहाँ भी नजर घुमाओ हर हर दिन हँसते हँसते आप मूर्ख बनते है और बनते भी रहेंगे।  

          हमारी पड़ोसन खुद को बहुत होसियार समझती थी, सब्जी वाले से भिन्डी सब्जी खरीदी और ऊपर से २-४ भिन्डी पर हाथ साफ़ कर ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे किला फतह  कर लिया हो. काहे तरकारी वाले को बेवकूफ  समझा है का, वह तो पहले ही डंडी मार कर अपना काम कर लेता है , १ किलो में तीन पाँव देकर बाकी की रसभरी बातों में उलझा देता है। कहता है ---" अरे माई हम ईमानदार है कम नहीं देंगे, लो ऊपर से ले लो चार भिन्डी"। भिन्डी न हुई पर हालत टिंडी हो गयी। 

             हर तरफ हर रिश्ते में मूर्खता का साम्राज्य फैला हुआ है। पति - पत्नी, माँ -पिता, भाई -बहन  एक दूसरे को भी मूर्ख बनाते हैं. न बात न चीत, लो  युद्ध कायम है.  तरकश हमेशा तैयार होता है।  बिना वजह शक पैदा करना,आज की हवा का असर है।  मीडिया रोज सावधान इंडिया जैसे कार्यक्रम पूरी शिद्दत से प्रस्तुत करता है,  जनता भोली -भाली बेचारी, पूरी तन्मयता से  कार्यक्रम का सुखद आनंद लेती है। क्राइम जो न करे वह भी इसकी लपेट में दम तोड़ता है। कुछ  करने को  रहा नहीं तो आजकल भौंडे प्रोग्राम और ख़बरें हर तरफ सांस ले रही हैं। हर तरफ मूर्खो का बोलबाला है।  

           नए ज़माने की नयी हवा बहुत बुद्धिमान  है।  स्वयं को मूर्ख साबित करो, एक दो काम का बैंड बजा दो को बॉस की  आँख- कान से ऐसा धुँआ निकलेगा कि वह चार बार सोचेगा इस मूर्ख को काम देने से तो अच्छा है खुद मूर्ख बन जाओ। 
  अब देखिये हाल ही बात है बजट प्रस्तुत किया गया।  जनता पूरी आँखे बिछा कर बैठी थी, हमारे काबिल नेताओं की घमासान बातों का जनता रसपान कर रही थी। अंत में यही हुआ किसी को लाठी और किसी की भैंस। टैक्स के नाम पर एक कान पकडे तो दूसरे खींच लिए, इतने कर लगाये कि कुर्ते की एक जेब में पैसा डालो तो दूसरी जेब से बाहर आ जाये।  पीपीएफ को भी नहीं छोड़ा।  महँगाई के नाम पर रोजमर्रा की वस्तुएं और चमक गयी, बेजार चीजें नीचे लुढक गयी।  अब टीवी फ्रिज जैसी वस्तुएं भोजन में कैसे परोसें, क्या पता दिन बदलेंगे और हम यही भोजन करने लगेंगे।  
            एक बात अबहुँ समझ नहीं आई, गरीबों को मुफ्त में मोबाइल, गैस का कनेक्शन  सुविधा देंगे। किन्तु रिचार्ज कौन करेगा ? सिलेंडर हवा भरकर चलेगा ? भोजन कहाँ से उपलब्ध होगा ? भाई जहाँ चार दाने अनाज नहीं  है वहां इन वस्तुओं से कौन सा खेल खेलेंगे?  हमरी खुपड़िया में घुस ही नहीं रहा है।  वो का है कि हमने खुद को इतना मूर्ख बनाया कि  गधा आज  समझदार प्राणी हो गया है।   अंग्रेजो का भला हो अब हम मूर्ख नहीं है। फूल है फूल।  न गोभी का फूल, न गुलाब का फूल, पूरी दुनिया में प्राणी  सबसे अच्छे फूल. लोग तो उल्लू बनाते है आप ऊल्लू मत बनिए। ओह हो!  आज तो १ अप्रैल है।  मूर्ख दिवस पर न उल्लू , न गुल्लू , न फूल बनो भाई अप्रैल फूल बनो ! अप्रैल फूूूल ~!
-- शशि पुरवार 

Tuesday, March 22, 2016

फागुन के अरमान




छेड़ो कोई तान सखी री
फागुन का अरमान सखी री

कुसुमित डाली लचकी जाए
कूके कोयल आम्बा बौराये
गुंचों से मधुपान
सखी री

गोप गोपियाँ छैल छबीले
होठों पर है छंद  रसीले
प्रेम रंग का भान
सखी री

नीले  पीले रंग गुलाबी
बिखरे रिश्ते खून खराबी
गाउँ कैसे गान
सखी री


शीतल मंद पवन हमजोली
यादों में सजना  की हो ली
भीगा है मन प्रान
सखी री

पकवानों में भंग मिली है
द्वारे द्वारे धूम मची है
सतरंगी परिधान
सखी री
फागुन का अरमान सखी री
- शशि पुरवार
आप सभी मित्रों को सपरिवार होली की रंग भरी शुभकामनाएँ। 


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Wednesday, March 16, 2016

धुआँ धुआँ होती व्याकुलता





धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ
सपनों की मनहर वादी है
पलक बंद कर ख्वाब सजाओ  

 लोगों की आदत होती है   
दुनियाँ  के परपंच बताना 
प्रेम त्याग अब बिसरी बातें 
बदल रहा  है नया जमाना।

घायल होते संवेदन को 
निजता का इक पाठ पढ़ाओ। 
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ .


दूर देश में हुआ बसेरा 
अलग अलग डूबी थी रातें 
कहीं उजेराकहीं चाँदनी 
चुपके से करती है  बातें
जिजीविषाजलती पगडण्डी 
तपते  क़दमों को सहलाओ.
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ.

ममताकरुणा और अहिंसा 
भूल गया जग मीठी वाणी 
आक्रोशों की  नदियाँ बहती 
 
हिंसा की  बंदूकें तानी
झुलस रहा है मन वैशाली 
भावों पर काबू पाओ  
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ  
  ---  शशि पुरवार

Saturday, March 5, 2016

" जिंदगी हमसे मिली रेलगाड़ी में "



जिंदगी हमसे मिली थी
रेलगाड़ी में 
बोझ काँधे पर उठाये 
क्षीण साडी में. 

कोच में फैला हुआ 
कचरा उठाती  है 
हेय  नजरें  झिड़कियां  
दुत्कार पाती है.
पट हृदय के बंद है इस 
मालगाड़ी में 
तन थकित, उलझी लटें 
कुछ पोपला मुखड़ा 
झुर्रियों ने लिख दिया 
संघर्ष  का  दुखड़ा 
उम्र भी छलने लगी 
बेजान खाड़ी में 

आँख पथराई , उदर की 
आग जलती है 
मंजिलों से बेखबर 
बदजात चलती है 
जिंदगी दम तोड़ती 
गुमनाम झाडी में. 

-- शशि पुरवार 
 

Friday, February 19, 2016

आँखों में कटते हैं दिन





करवट लेते रहे रात भर
आँखों में कटते है दिन
उमस भरी रातों के पलछिन 

दर्प दिखाती खड़ी इमारत
सिमटे हैं नेह दालान
किरणें आती जाती देखें
सब बंद है रौशनदान
भीतर हवा सुलगती रहती
घुटन भरी साँसें कमसिन.

सन्नाटा कमरें में पसरा
अंतस में है कोलाहल
दो पाटों के बीच घिरा, यह
नन्हा सा, मन है चंचल
इक अदद कहानी गढ़ते है
बीत रहे काले दुर्दिन.

शाम सुबह, घर दिखते साये
एक दूजे से नाराज
खिड़की दरवाजे भी सुनते
फिर टिकटिक घडी का साज
टुकड़ा टुकड़ा धूप सहेजे 
वो मन अँधियारे हर दिन.

करवट लेते रहे रातभर
आँखों में कटते है दिन।
 शशि पुरवार



Tuesday, February 16, 2016

समीक्षा - सागर मन - पुष्पा मेहरा

आ. पुष्पा मेहरा जी के हाइकु संग्रह सागर मन जैसा नाम से ही प्रतीत होता है, भावों का सागर जैसे उनके मन में हिलोरे लेता है।  पुष्पा जी के हाइकु  भाव की लोकरंजन भूमि पर जन्मे हुए संवेदना के अप्रतिम सितारें है।  हाइकु में प्रकृति का सौंदर्य उसकी पराकाष्ठा को कवयित्री ने सफलतापूर्वक सम्प्रेषित किया है. इंद्रधनुषी रंग सागर मन के एक एक कण में अपनी आभा बिखरते नजर आतें है. 

     भोर का संगीत हवाओं में घुलकर पात पात मुखर वाणी  को सफलतापूर्वक सम्प्रेषित  करता है  प्रकृति  के अप्रतिम सौन्दर्य को पुष्पा  जी ने बहुत शिद्दत से महसूस किया है. सकारात्मक उर्जा का सन्देश उनके हाइकु में समाहित है . कल्पना की उड़ान किसी उम्र की मोहताज नहीं होती है.  उनके द्वारा रचित सौन्दर्य की कुछ बानगी देखें .
सोन किरणें / हमें जगाने आईं / ले सात रंग
 नभ मोहल्ला / नक्षत्र दें पहरा / सोयी है रात

बसन्त में  अवनि का सौन्दर्य पूरे उन्माद पर रहता है. चहुँ ओर छैल छविली सी प्रकृति के मनमोहक रंग सुन्दर अल्पना रचाते  हैं. डाल –डाल, पात –पात फूलों का सौन्दर्य, हवा की अठखेलियाँ, हवा का उद्दंड होना, व  सुरभि का बिखरना मन को मोहित करता है. बसन्त के रंग धरा पर अपने पूरे सौन्दर्य को निहारते से प्रतीत होते हैं. फागुन में सौन्दर्य की लालिमा, लाल पीले रंग में खिले पलाश के गुच्छे, लदबद डाल दूर से आग जलने सा भ्रम पैदा करते हैं वहीँ दृष्टी को शीतलता भी  प्रदान करतें हैं. यहाँ कवयित्री ने बसंत की तुलना नार से भी की है, नारी और सौन्दर्य एक दूसरे के पूरक है उसी प्रकार पृकृति बसंत में अपने सुन्दर रंगों से धरती का श्रृंगार करती है . पुष्पा जी ने पृकृति के  इस  सौन्दर्य को बेहद सूक्ष्मता से आत्मसाध किया है जिसकी साधना के फलस्वरूप हाइकु में ये सारे रंग एकाकार होते नजर आते है. कुछ हाइकु की बानगी को देखिये
फुलों ने ओढ़ी / चुनरी बंधेज की / हवा मचली
प्रातः शर्मीली / नभ पट खोल के / मंद मुस्काई
हवा चपल/अंचल खींच उड़े / विस्मित नभ
फूलो का सत्र / करे प्रतियोगिता / हरेक क्यारी
प्रेम की पाती / ले बाँट रही हवा / मुग्ध हैं शाखें
झरे महुआ / धरा है पीत रंग / भरे सुगंध
धूम मचाती / रंग उड़ाती आई / नार छबीली
सरसराती/ हवा  चांटे मारती / हाथ न आती .
रूप सुहाग / भर लायी पृकृति / पुलके गात
फागुन आया / पलाश वन फूला / लगी है आग
 यही एक हाइकु पर मेरी नजर ठहर सी गयी है.फूलो की सुगंध सिर्फ पछियों व मानव को मोहित करने में समर्थ नहीं है अपितु फूलों के हमजोली काँटों पर भी उनका प्रभाव क्या होता है, यह पुष्पा जी की नजर से देखियें. कांटें सिर्फ चुभन के लिए नहीं होतें है उनका भी खास महत्व होता है . यह पुष्पा जी की नजर से देखे –
पी पी सुगंध / काँटे भी मदमस्त / शाखों पर सोये

    प्रकृति के सानिध्य में रचा गया यह हाइकु कुछ सामाजिक विसंगतियों की परतें भी उधेड़ता है. पुनः – पुनः इस हाइकु को पढ़कर मेरी दृष्टी हट ही नहीं रही है . पृकृति का अप्रतिम सौन्दर्य मानव जीवन से भी जुड़ा है. बिगड़े हुए लोग रंग रलियाँ मनातें है व्यसन  करतें हैं और मदमस्त होकर यूँ ही बेसुध पड़े रहतें है . इस हाइकु हेतु कवयित्री को विशेष वधाई देना चाहती हूँ . प्रकृति मानव विसंगतियों को मौन शब्दों में व्यक्त करती है यह देखने वालों की नजर ही है जो उसे आत्मसाध कर सकती है ..
पी पी सुगंध / काँटे भी मदमस्त / शाखों पर सोये-- अप्रतिम 


बसन्त में जहाँ पृकृति के रंग लुभाते हैं वहीँ ग्रीष्म का मौसम ताप उडेलता है .ऐसे मौसम में भी जीवन के सकारात्मक रंग का सन्देश हमें  प्रकृति द्वारा मिलता है, कवयित्री ने जहाँ बसंत के सलोने रूप  का व्याख्यान किया है, वहीँ ग्रीष्म की तपन, पंछियों की पीड़ा को भी महसूस किया है  तेज सोटें मारती ग्रीष्म से जहाँ प्रकृति बेरंग होती है वहीँ जनजीवन बहाल होता है . ग्रीष्म के ऐसे मौसम में भी निबोरी व आम जैसे फल कुछ ठंडक प्रदान करतें हैं. वहीं केक्टस  तेज आंधी तूफ़ान, तेज धूप में भी खड़ा मुस्कुराता है. जीवन को  सकारात्मकता का सन्देश देता है .कवयित्री की कलम ग्रीष्म काल में भी प्रकृति से छाया समेटती नजर आती है, सकारात्मक जीवन का सन्देश हर मौसम में प्रकृति द्वारा मिलता है , पुष्पा जी ने भाव  को  बेहद सशक्त शब्दों द्वारा ख़ूबसूरती से संप्रेषित किया है. ग्रीष्म की आग है तो रसीला स्वाद भी है , जलती पगडण्डी है तो शीतल छाया और रसभरीऔषधि निम्बोरी है. ग्रीष्म का हुबहू वर्णन हमें तपन का अहसास करता है. यह रंग भी पुष्पा जी के हाइकु में करीब से नजर आता है .तप्त दिवस  में शीतलता प्रदान करतें इन सुन्दर हाइकु को देखियें –

तप्त दिवस/ जहर रही निबौरी / औषधि – भरी
धधके धू –धू / जेठ दोपहरी / बेहाल तन
दिन गरम / नदी , नाद , नाहर /भूले नर्तन
तपते दिन / हाल हुआ बेहाल / रसीले आम
तीखी मिर्च / किरण सुनहरी / ताप धूप का
आंधी रेतीली / ताज ले कांटो –भरा / खड़ा कैक्टस
   ग्रीष्म की तपन के बाद वर्षा का अपना अलग ही आनंद व महत्व होता है. ग्रीष्म तन की तपन बढाता है वहीँ वर्षा मदमस्त करती है, बिजली का कड़कना, बूंदों का मचलना, बाढ़ का प्रकोप , सूखे की मार, बच्चों की मस्ती , मेढक की टर्र टर्र, कभी सूखे की मार तो कभी नभ का फटना, सभी रंग कवयित्री के हाइकु में नजर आतें है , साथ ही विज्ञान का पहलू भी हाइकु ने  नजर आता है. किस तरह वर्षा की बूंदें वाष्प बनकर नभ में जाती है और वही बाद में सिन्धु में मिलती है, ज्ञानवर्धक इस हाइकु का समावेश भी है. इस हाइकु के लिए कवयित्री की जितनी सराहना की जाये कम है, बच्चों को कम शब्दों में अर्थ समझाता यह हाइकु विशेष बन पड़ा है.
मेढकी बैठी / करती टर्र टर्र / पोखर तट
फेरता पानी / सरस उम्मीदों पे / विनाश- बीज
वर्षा –बहार /सपनों की हात में /खोया संसार
 बूंदें वर्षा की / उडाती सोंधी गंध / महकी धरा
आकाश ऊँचा / सूखा ही रह गया / नहा ली धरा
बूंदें थी नन्ही /मिली तो सिन्धु बनी / भाप हो उडी
करे ठिठोली /शरारती बिजली / भेदे गगन
भीगी धरती /लाल बीरबहूटी / मूंगे सी बिछी
 वर्षा के बाद शरद का मौसम गुलाबी ठंडक, दुधिया रात, मौसमी श्रृंगार एक शक्ति का आभास करातें है. आसमान पर सौन्दर्य पूरे उन्माद पर होता है .  शरद पूर्णिमा का चाँद मन में शीतलता का आभास करातें है . ठंडक भरे इन हाइकु को देखिये .
शरद चन्द्रिका / मधु घट ढालती / समोखे धरा
दूधों नहाई / लिपट गयी रात / माँ वसुधा से
आस करूँ / चाँदनी मन बसे / हारे तमिस्त्रा
शरद के बाद शीत का आगमन होता है, पृकृति के रंग जैसे कोहरे की चादर में सिमटने लगते हैं, सूर्य की लालिमा कम होती है. हर तरफ धुंध की सफ़ेद चादर जीवन को अस्त व्यस्त करती है वहीँ पृकृति का अध्बुध सौन्दर्य भी नजर आता है . ओस की बूंदे , गीली घास, ठन्डे अलाव , शीत का ज्यों की त्यों वर्णन सभी हाइकु में नजर आता है . समय, कर्म  की गति कम हो जाती है, शिराएँ जैसे जमने लगती है , शीत काल के कुछ हाइकु की बानगी को देखिये .
बेसुध नदी / शिराएँ जम रही / गति ही भूली
शीत धुनकी /फैलाती धरा पर / पाले की रुई
ठिठुरी धूप / चौखंडे पे उतरी / ओस के मोती
शीत नगरी / बिन अंगीठी आग / धुआं फैलाती
ओस की बबूंदे / बिजली के तारों पे /  पोत सी सजी
सूरज राजा / अलाव जला बैठे / धुंध से हारे
भीगी है घास /अलाव भी ठन्डे पड़े / सूनी चौपाल
दे दी शिकस्त / कोहरे ने सूर्य को /लौटा वो गॉंव
शीतकाल  के बाद पतझड़ का मौसम आता है, पतझड़ जहाँ पत्ते झर जातें है, वृक्ष अपने तन से पुराने आवरण त्याग देता है, धरा रंग विहीन होने लगती है,  मौसम में कुछ उदासी सी छाने लगती है लेकिन यह नए आगमन का सन्देश भी है.  सकारात्मक जीवन की नयी दिशा है एक विश्वास है जीवन पुनः गतिशील होगा, नयी सुबह का आगाज है.  
वृक्ष उतारे / श्रृंगारजो अपना / चीत्कारे हवा
पदाघातों से / कुचलते जा रहे / निश्चेष्ट पत्ते
बीती बहारें / लौट फिर आयेंगी / विश्वास घना
रिश्तों के वन / सूखते ही जा रहे / उडती धूल
प्रकृति के अतिरिक्त जीवन के हर रंग पर कवयित्री ने बेहद संजीदगी से अपनी कलम द्वारा बेहद सुन्दर मोती उकेरे हैं , भाई बहन रिश्ते  नाते , बेटियां, अम्मा , यादेँ आँसू , कांटें , दर्द, बाल श्रम जैसे विषयों पर बारीकी से महसूस कर सफलता पूर्वक संप्रेषित किया है. माँ की ममता का कोई मोल नहीं होता है , माँ जीवन में संबल प्रदान करती है, जीवन के हर रंग पुष्पा जी के हाइकु में उकेरे गए है.
सजी देहरी / गूँज उठा है घर / आई है बेटी
घूँघरू बाँध / बेटी जब नाचती / ममता गाती
अम्मा पकाती / रात हांडी में खीर / झरे अमृत
काँटा जो चुभा / माँ सपनो में आई / निकाल गयी
सागर पिता / बहती सहज ही / जल उर्मी माँ ----- विशेष   – यह हाइकु बेहद संजीदा है, कोटि कोटि बधाई देना चाहती हूँ .गागर में सागर समान यह हाइकु  माँ पिता के सम्पूर्ण सत्य को बेहद संजीदगी और खूबसूरती से उकेरता है
रिश्तें नातें , अहंकार यादेँ जीवन का अहम् हिस्सा है, दर्द आँसू सभी संवेदनाओं पर कवयित्री की कलम से बहद सुन्दर हाइकु संप्रेषित हुए है , एक एक हाइकु एक एक रत्न जडित मोती है, जिन्हें एक संवेदनशील रचनाकार ही रचित कर सकता है .
रिश्ते – चन्दन / करे मन शीतल / फिर भी न मिले
दंभ कटार / काट गयी रिश्तों की / सारी कड़ियाँ
याद चिरैया / ढूंढ ढूंढ लाती है / कोई सौगातें
वर्षा की बूँदें / मन चषक भरे / यादों के मोती
याद गुलाब / पंखुरी बन खिला / महका मन
मन महका / छिडक गयी इत्र / यादेँ ये गंधी
सोने न देती / सपनो की दुनियाँ / रातों जगाती
 आँखों ने सोखी / सारे जख्मो की लाली / न थी शराबी --- वाह बेहद सुन्दर हाइकु, दर्द जब आँखों में उतर जाता है तो बिन पिए उसका असर शराब की तरह आँखों में उतरता है, कई बार पेट की खातिर ऑंखें जल बहाने हेतु मजबूर भी होती है, जो दर्द से इतर मज़बूरी का रास्ता इख़्तियार कर लेतें है
इस  हाइकु को देखे ---
पेशेवर थी /दहाड़ मार रोई / रुदाली आँखें
पर्यावरण पर आज सम्पूर्ण जगत चिंतित है, आधुनिक जीवाब शैली ने पृकृति पर संहार किया है, प्रदूषण , घटता जलस्तर, वनों का कटना, पहाड़ों का दरकना, नदी का सिसकना, प्रकृति अपनी चीत्कार मौन रहकर जाहिर करती है.  भूकंप , ज्वालामुखी का फटना, मौसमी परिवर्तन जलस्तर का घटना सभी प्रज्रुती के सन्देश है जिन्हें मानव को समझना होगा. कवयित्री ने पर्यावरण पर अपनी चिंता भी जाहिर की है . यह उनके हाइकु में झलकती है.
रोष दिखाए / ये विद्रोही प्रकृति / करेविस्फोट
वृक्ष विहीन / प्यासे खड़े हैं वन / प्यासी धरणी
मौन हो वृक्ष / काँपे तो बहुत ही / करते रहे
फूल लापता / केक्टस चहुँ ओर / गढ़ रेत का
तोड़ता बांध / प्रताप नदियों का / रोके न रुका
काँटे भुला के / हरे पत्तों से झाँके / रक्त गुलाब
सूरज बांटे / उर्जा हर डगर / मांगे न मोल
दिशा ले चलो / दुःख –दंश भुला दो / सिख दे माटी
सूखे तो जले / धूल बनके उड़े / माटी ये काया .

पुष्पा जी बेहद संवेदनशील रचनाकारा है, प्रकृति हो या जीवन के हर रंग, उनकी कलम बेहद सं जीदगी से चलती है,वह बेहद उम्दा हाइकु कारा है. जिस तरह उनके संग्रह सागर – मन में हाइकु का समावेश है वह उनकी संजीदगी को बयां करता है, हाइकु जितने बार पढ़े जायें हर बार अपना नया रंग बिखेरते हैं, सभी हाइकु को हम यहाँ इंगित नहीं कर सकतें है, एक हाइकु न जाने कितने अर्थ का समावेश होता है हाइकु आज नए मुकाम पर आ पंहुचा है, पुष्पा जी को नमन करना चाहती हूँ उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से एक नया मुकाम हासिल किया है और हाइकु जगत को बेहद उम्दा संग्रह प्रदान किया है .अल्प समय में बेहद उम्दा संग्रह निसंकोच यह सीप में बंद अनमोल मोती के समान है. जिसकी आभा सदैव हाइकु जगत में अपनी आभा बिखेरती रहेगी।  आ. पुष्पा जी कोटि कोटि बधाई और शुभकामनाएँ
शशि पुरवार





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  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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