Monday, April 27, 2015

प्रेम कहानी

 
 
 
१ 
दर्द की दास्ताँ 
कह गयी कहानी 
प्रेम रूमानी 
२ 
एक ही  धुन 
भरनी  है गागर 
फूल सगुन 
३ 
प्रेम  कहानी 
मुहब्बत ऐ  ताज 
पीर  जुबानी
४ 
रूह  में  बसी 
जवां है मोहब्बत  
खामोश  हंसी  
५ 
धरा  की  गोद  
श्वेत ताजमहल 
प्रेम  का  स्त्रोत 
६ 
ख़ामोश  प्रेम 
दफ़न  है  दास्ताँ 
ताज की  रूह
७ 
पाक दामन  
अप्रतिम  सौन्दर्य 
प्रेम  पावन  
८ 
अमर  कृति
हुस्न ऐ  मोहब्बत 
प्रेम  सम्प्रति
९ 
 ताजमहल
अनगिन रहस्य 
यादें दफ़न 
 - 
   शशि।.

Saturday, April 25, 2015

जब मुकद्दर आजमाना आ गया




जब  मुकद्दर आजमाना आ गया
वक़्त भी अपना सुहाना आ गया

झूमती हैं डालियाँ गुलशन सजे
ये समां भी कातिलाना आ गया

ठूंठ की इन बस्तियों को देखिये
शामे गम महफ़िल सजाना आ गया

आदमी  जब  राम से रावण बने
आग में खुद को जलाना आ गया

दर्द जब मन की  हवेली के मरे
रफ्ता रफ्ता मुस्कुराना आ गया

भागते हैं लोग अंधी दौड़ में
मार औरों को गिराना आ गया

जालिमों के हाथ में हथियार हैं
खौफ़ो वहशत का ज़माना आ गया

मौत से अब डर नहीं लगता मुझे
जिंदगी को गुनगुनाना आ गया

-- शशि पुरवार

Tuesday, April 21, 2015

हाइकु -- सुख की ठाँव




सुख की ठाँव
जीवन के दो रंग
धूप औ छाँव

भ्रष्ट अमीरी
डोल गया ईमान
तंग गरीबी

शब्दो  का मोल
बदली परिभाषा
थोथे  है  बोल

मन के काले
धूर्तता आवरण
सफेदपोश
--- शशि पुरवार

Monday, April 20, 2015

कागा -- मन के भोले

 


एक ही धुन
भरनी है गागर
फूल सगुन

दर्द की नदी
कहानी लिख रही
ये नई सदी
 ३ 
तन के काले
मूक सक्षम पक्षी
मुंडेर संभाले

कर्कश बोली
संकट पहँचाने
कागा की टोली

मूक है प्राणी
कौवा अभिमानी
कोई न सानी।

भोली सूरत
क्यों कागा बदनाम
छलिया नाम

कोयल साथी
धर्म कर्म के नाम
कागा खैराती
--- शशि पुरवार
आपके समक्ष एकसत्य घटना साझा करना चाहती हूँ कोई माने या ना माने एक सत्य को मैंने यह सत्य करीब से जिया है , इस निरीह प्राणी को स्नेह समझ आता है बोली समझ आती है। एक दो पोस्टिंग पर मैंने यह अनुभव लिया है , कौवा रोज सुबह रसोईघर की खिड़की पर बैठकर वही भोजन मेरे हाथों से खाता था जो बनाती थी , धीरे धीरे उसके भाव समझने की कोशिश की तब यह आश्चर्य था उसे जो भी चाहिए उस वस्तु पर हाथ रखो तो वही खाने के लिए कॉँव कॉँव करता था , जो नहीं चाहिए उस पर से नजर हटा दी । कोई और दे तो नहीं खाता था घर वाले हैरान थे वह मेरी बात समझ रहाहै जब वह शहर छोड़ा तब २ दिन कागा ने कुछ नहीं खाया , ट्रक में जैसे ही सामान भर गया, मैंने किसी का रोदन सुना , कोई आसपास नहीं दिखा , तब एक पेड़ पर वही कौवा बैठा था , उसके गले की हलचल और आवाज देखकर मै हैरान थी कि पक्षी रो रहा है। वहां खड़े लोगों ने यह आश्चर्य देखा है। सोचा जाते जाते पानी पिला देती हूँ पानी भर कर रखा  वहउतरा किन्तु उसने पानी नहीं पिया। यह हृदय को छू गयी सत्य घटना है जिसने कागा के लिए मेरी सोच बदल दी। स्नेह सर्वोपरि है.

  मेरे लिएयह रोमांचकारी था ,एक किस्सा और बताती हों मै जब मावा बनाती थी तब वह मावा विशेष रूप से पसंद करता था जब तक नहीं दो कॉँव कॉँव बंद ही नहीं होती थी। यह हमें ज्ञात है कि पशुपक्षी केलिए घी तेल हानिकारक होते हैं इसीलिए ऊँगली में जरा सा मावा रखकर खिड़की से बाहर हाथ रखती थी और वह इधर उधर ऐसे देखता था कि कोई देख तो नहींरहा और चुपचाप हाथ पर रखा मावा नजाकत से चोंच से उठाकर खाता था , , यहमूक प्राणी कोई भी हों स्नेह समझतें है और वफादारी भी निभातें है। ऐसे रोमांच जीवनपर्यन्त यादगार होतें है , मै हरजगह किसी न किसी मूक प्राणी से रिश्त बनाने का प्रयास जरूर करतीं हूँ।

Friday, April 10, 2015

आईना सत्य कहता है।



  लघुकथा

आज आईने में जब खुद का अक्स देखा तो ज्ञात हुआ  वक़्त कितना बदल गया है। जवां दमकते चहरे, काले बाल, दमकती त्वचा के स्थान पर श्वेत केश, अनुभव की उभरी लकीरें, उम्र की मार से कुछ ढीली होती त्वचा ने ले ली है, झुर्रियां अपने श्रम की  कहानी बयां कर रही हैं।  उम्र को धोखा देने वाली वस्तुओं पास मेज पर  बैठी कह रही थी मुझे आजमा लो किन्तु  मन  आश्वस्त था इसीलिए इन्हे आजमाने का मन  नहीं हुआ. चाहे लोग बूढ़ा बोले किन्तु आइना तो सत्य कहता है।  मुझे आज भी आईने के दोनों और आत्मविश्वास से भरा, सुकून से लबरेज मुस्कुराता चेहरा ही नजर आ रहा है। उम्र बीती कहाँ है, वह तो आगे चलने के संकेत दे रही है। होसला अनुभव , आत्मविश्वास आज भी कदम बढ़ाने के लिए  तैयार है। 
शशि  पुरवार

Wednesday, March 25, 2015

आदमी ने आदमी को चीर डाला है।




चापलूसों का
सदन में बोल बाला है
आदमी ने आदमी
को चीर डाला है

आँख से अँधे
यहाँ पर कान के कच्चे
चीख कर यूँ बोलतें, ज्यों 
हों वही सच्चे.
राजगद्दी प्रेम का
चसका निराला है

रोज पकती है यहाँ
षड़यंत्र की खिचड़ी
गेंद पाले में गिरी या
दॉंव से पिछड़ी
वाद का परोसा गया
खट्टा रसाला है

आस खूटें बांधती है
देश की जनता
सत्य की आवाज को
कोई नहीं सुनता
देख अपना स्वार्थ
पगड़ी को उछाला है
आदमी ने आदमी को चीर डाला है
-- शशि पुरवार

Thursday, March 19, 2015

पहचान


वाह अपना लंगोटिया यार कितना बड़ा आदमी हो गया है, जानी मानी हस्ती है, अपने को कैसे भूल सकता है, जब उसके बुरे दिन थे तब कितनी मदद की थी। महाशय दम्भ में भरे हुए बचपन के सखा से मिलने गए, साथ में एक दो चम्मच को भी ले गए , थोड़ा रॉब तो झाड़ दिया जाए ……… अपनी तो गाडी निकल पड़ेगी।

पर वहां तो चमचों की लाइन लगी पड़ी थी, अब गुड की ढेली आ गयी है तो मक्खियाँ तो भिनभिनायेंगी।
ऐसे में इन महाशय को कौन पूछता, पर महाशय आज मिलने का विचार का साफा पहनकर ही बैठे थे।

बड़े बड़े कद वाले दोस्त आये, सबसे मिले फिर महाशय से कहा - कहो भाई कैसे आना हुआ, क्या काम है।

महाशय बड़े खुश---- अपने यार ने पहचान लिया। पीठ पर धौल मालकर गले लग गए --- यार केशु कैसा है?

पर यह क्या --- अरे अरे कौन हो भाई -- ये क्या कर रहे हो --- जरा सा मीठा क्या बोल लिया -- सर पर बैठे जा रहे हो।
" तुम मुझे नहीं पहचान रहे ,कैसे भूल सकते हो " महाशय अचकचा गए.

तुम जैसे लोग बेफ़्कूफ होतें है, जब काम था, अब काम ख़त्म , हमसे फ़ायदा उठाने की सोचना भी मत --- तुमने काम किया तो हमने भी तुम्हारा काम किया हिसाब ख़त्म। …।

कड़कती आवाज ने निर्देश दिया ---चौकीदार आगे से ध्यान रखना ऐसे लोग अंदर नहीं आने चाहिए।
चढ़ते सूरज को हर कोई सलाम करता है।
-- शशि पुरवार

Thursday, March 5, 2015

भंग दिखाए रंग - होली है




होरी आई री सखी ,दिनभर करे धमाल
हरा गुलाबी पीत रंग , बरसे नेह गुलाल .1

द्वारे  पे गोरी खड़ी ,  पिया  गए परदेश
नेह सिक्त  पाती लिखी ,आओ पिया स्वदेश2

भेद भाव से दूर ये  ,होरी का त्यौहार
डूबा जोशो जश्न में , यह सारा संसार 3

होरी के  हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो  सामने ,फेको उस पर रंग .4

अम्मा से बाबू कहे , खेलें  होरी  आज
कहा तुनक कर उम्र का , कुछ तो करो लिहाज .5

होरी की अठखेलियाँ , पकवानों में भंग
बिना बात किलकारियाँ , भंग दिखाए रंग 6


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 कुण्डलियाँ
होली के हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो सामने,  उस पर फेको  रंग
फेको उस पर रंग , नीले पीले गुलाबी
घेरो  सब चहुँ ओर, यह टोली है नबाबी
मस्ती का उन्माद , संग मित्रों के ठिठोली
जोश जश्न उल्लास , खेलो प्रेम की होली .

हाइकु -


होली है प्यारी
रंग भरी पिचकारी 
सखियाँ न्यारी


 मारे गुब्बारे
लाल पीले गुलाबी
रंग लगा रे

प्रेम की होली
दूर बैठी सखियाँ
मस्तानी टोली

होली की मस्ती
प्रेम का  है खजाना
दिलों की बस्ती


चढ़ा के भंग
मौजमस्ती संग
बजाओ चंग

    -----  शशि पुरवार
आप सभी ब्लॉगर मित्रों को होली की हार्दिक रंग भरी शुभकामनाएँ

Monday, February 23, 2015

अब कहाँ जाएँ।





बाहर की आवाजों का शोर,
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
- शशि पुरवार

Monday, February 16, 2015

गम की हाला - नवगीत



होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म की
पी है हाला

ख्वाबों की बदली परिभाषा
जब अपनों को लड़ते देखा
लड़की होने का ग़म ,उनकी
आँखों में है पलते देखा
छोटे भ्राता के आने पर
फिर ममता का
छलका प्याला 

रातों रात बना है छोटा
सबकी आँखों का तारा
झोली भर-भर मिली दुआये
भूल गया घर हमको सारा
छोटे के
लालन - पालन में
रंग भरे सपनो की माला

बेटे - बेटी के अंतर को
कई बार है हमने देखा
बिन मांगे,बेटा सब पाये
बेटी मांगे, तब है लेखा
आशाओं का
गला घोटकर
अधरों , लगा लिया है ताला
-- शशि पुरवार

Monday, February 9, 2015

रोजी रोटी की खातिर





रोजी रोटी की खातिर,फिर
चलने का दस्तूर निभाये
क्या छोड़े, क्या लेकर जाये
नयी दिशा में कदम बढ़ाये।

चिलक चिलक करता है मन
बंजारों का नहीं संगमन
दो पल शीतल छाँव मिली, तो
तेज धूप का हुआ आगमन

चिंता ज्वाला घेर रही है
किस कंबल से इसे बुझाये।

हेलमेल की बहती धारा
बना न, कोई सेतु पुराना
नये नये टीले पर पंछी
नित करते हैआना जाना

बंजारे कदमो से कह दो
बस्ती में अब दिल न लगाये।

क्या खोया है, क्या पाया है
समीकरण में उलझे रहते
जीवन बीजगणित का परचा
नितदिन प्रश्न बदलते रहते

अवरोधों के सारे कोष्टक
नियत समय पर खुलते जाये।
 -- शशि पुरवार

Monday, February 2, 2015

मौसम ठिकाने आ गए



आ गए जी आ गए
मौसम ठिकाने आ गए
सूर्य ने बदला जो रस्ता
दिन सुहाने आ गए।

धुंध कुहरे की मिटाने
ताप छनकर आ रहा
खेत में बैठा बिजूखा
धुप से गरमा रहा
धूप की
अठखेलियों के
दिन पुराने आ गए।

प्रेम पाती बाँचकर, यह
स्वर्ण किरणें चूमती
इंद्रधनुषी रंग पहने
तितलियाँ भी झूमती
स्वप्न आँखों में
बसंती
दिल चुराने आ गए।

नींद से जागा शहर
टहलाव,
सड़कों पर मिला
सुगबुगाती टपरियोँँ पर
चुसकियों का सिलसिला
लॉन में फिर
चाय पीने
के बहाने आ गए।

बात करते खिलखिलाते
साथ जोड़े चल रहे
घाट पर गप्पें लड़ाते
कुछ समय को छल रहे
हाथ नन्हे डोर थामे
नभ रिझाने आ गए
   --- शशि पुरवार




समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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