Friday, July 27, 2012

चपाती

 
चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती .

किसान बोये धान
और सबको दे मुस्कान
दो जून रोटी की खातिर
छोटे बड़े मिलकर
करते श्रमदान
पर लुटेरो को उनकी
पीड़ा नजर ही नहीं आती
छीन कर ले जाते निवाला
लोलुपता ही उन्हें नजर आती .

तन की भूख मिटाने को
बस मन में है लगन
आएगा कुछ धन तो
मिट जाएगी पेट की अगन
पर माथे की शिकन मिट
ही नहीं पाती , और
महँगी हो जाती चपाती .

श्रम का नहीं मिलता मोल
दुनिया भी पूरी गोल
थाली में आया सिर्फ भात ,
सूनी कर गरीबो की आस
पंच सितारा,होटलो
और बंगले में
इठला के चली गयी चपाती .

इतनी शान बान
अचंभित हर इंसान
चांदी के बर्तनो में
परोसी गयी चपाती
पर यह क्या, हाथ में रह
गए सिर्फ ड्रिंक ,और
चमचमाती थाली में
छूट गयी चपाती .

झूठन में फेककर
कचरे में मिलकर
पुनः जमीं पर आती
भूखे लाचार इंसानो
की भूख मिटाती,
नहीं तो वहीँ पे पड़ी -पड़ी
मिटटी में मिल जाती चपाती .

चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती ...........!

-------शशि पुरवार----------

Thursday, July 12, 2012

अकेला आदमी

 
अधुनातन लम्हो में
स्वतः ही खनकती
हंसी को टटोलता
अकेला आदमी .

लोलुपता की चाह में
बिखर गए रिश्ते
छोड़ अपनी रहगुजर
फलक में
उड़ चला आदमी .

उपलब्धियो के
शीशमहल में
सुभिताओं से
लैस कोष्ठ में ,
खुद को छलता ,
दुनिया से
संपर्क करता ,
पर एक कांधे को
तरसता 
आदमी .

उतंग पर खड़ा ,
कल्पित अवहास
अभिवाद करता
अज्ञात मुखड़ो
को तकता ,
भीड़ में भी
इकलंत आदमी .
----- शशि पुरवार

Saturday, July 7, 2012

माँ उदास ....!



माँ उदास
मारती रही औलाद 
तीखे संवाद ,
भयी कोख उजाड़ .

बरसा सावन तो
पी  गए नयन
दबी सिसकियां
शिथिल तन
उजड़ गयी कोख
तार तार दामन .

खून से सने हाथ 
भ्रूण न ले सके सांस 
चित्कारी आह 
हो रहा गुनाह
माँ की रूह को 
छलनी कर 
सिर्फ पुत्र चाह .

जिस कोख से जन्मे देव 
उसी कोख के
अस्तित्व का सवाल
सृष्टि की सृजक नारी 
आत्मा जार जार 
हो रहा कत्लोआम 
परिवर्तन की पुकार .
                   माँ उदास ......भयी  कोख उजाड़ ....! 
-------    शशि पुरवार





Wednesday, July 4, 2012

बारिश की बूंदे.....



बारिश की बूंदे
जरा जोर से बरसो
घुल कर बह जाये आंसू
न दिखे कोई गम
जिंदगी में नहीं मिलती है
जो , ख़ुशी चाहते हम ...!

अंदर -बाहर है तपन
दिल में लगी अगन
दर्द की भी चुभन
झिम झिम बरसे जब सावन
क्या अम्बर क्या नयन
बह जाये सारे गम
बूंदे जरा जोर से बरसो
भीग जाये तन -मन ....!

टप-टप करती बूंदे
छेड़े है गान
पवन की शीतलता
पात भी करे बयां

सौधी
  खुशबु नथुनो से
रूह तक समाये
चेहरे पर पड़ती बूंदे
मन के चक्षु खोल
अधरो पे मुस्कान बिछाये
गम की लकीरें पेशानी से
कुछ जरा कम हो जाये
बूंदे जरा जोर से बरसो ...!

:--शशि पुरवार
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एक क्षणिका भी छोटी सी --

आई बारिश
खिल उठा मन
झूम उठा मौसम
जीभ को लगी अगन
चाय -पकोड़े का
थामा दामन ,
गर्म प्याली चाय की
ले एक चुस्की , और
भूल जा सारे गम
इन खुशगवार पलों का
है बस आनंदम ....!
-----शशि पुरवार

Wednesday, June 27, 2012

पलों का बहुत है मोल ........!

 
राही जीवन है अनमोल
पलों का बहुत है मोल
सफ़र को बना सुहाना
बस हँसते हुए पग बढ़ाना .

टेढ़े -मेढ़े है रास्ते
न कोई ठौर , न ठिकाना
मंजिल अभी है दूर
सफ़र नया अनजाना
बस हँसते हुए ,
हे राही ,
आगे पग बढ़ाना .

कभी सावन -भादो
कभी पतझड़ का आना
फिसलन भरी है पगडण्डी
और हवा का भी,
बेरुखी से गुजर जाना
इन पटी हुई राहों में ,
हर पल है धोखा
राही खुद को भी जरा संभालना .

आएगा इक वक्त 
जब ठहर जायेंगे पल
थकित मन ,
सुप्त कदम ,
न मन में कोई उमंग , पर
तू न इससे घबराना
दिल को दे होसला
जीने का मिल जायेगा बहाना

जीवन तो है इक सफ़र
मृत्यु आती निश्छल ,
तू न इससे डर
जी ले जिंदगी के पलों को
सफ़र को बना सुहाना
बदल जायेंगे फिर समीकरण
बस हसंते हुए कदम बढ़ाना ....!

राही यह जीवन हैअनमोल
तू संभल कर पग बढ़ाना ..............!
:--- शशि पुरवार

Thursday, June 21, 2012

ख्वाब ,..........!


ख्वाब ,
दिल के प्रांगण में
सदा लहलहाते

पलकों की छाँव तले
ख्वाबों के परिंदे
कभी उड़ते ,कभी थमते
दिल के कल्पवृक्ष
पे सदा चहचहाते
गुलशन महकाते .

वक्त  से पहले
नसीब से ज्यादा
नहीं भरता
जिंदगी का प्याला ,
आशाओं के बीज
रोपते ,नहीं रूकते
वृक्ष ख्वाबों के
फलते फूलते
दिल के प्रांगण को
सदा महकाते .

झिलमिलाती आशाएं
खिलखिलाते सपने
हिंडोले लेता मन मयूर
कर्म की भूमि पर
हाथों की लकीर के
आगे नतमस्तक ,
फिर भी ख्वाब ,
कभी नहीं हारते .

ख्वाब, दिल के प्रांगण
सदा लहलहाते ,
खिलखिलाते ......!

:--शशि पुरवार
दोस्तों ,आज मेरेसपने , मेरे  ब्लॉग को एक वर्ष पूरा हो गया और आप सभी का बहुत स्नेह मिला ......! अपना स्नेह बनाये रखें .
कल का दिन खास है  , आप सभी के साथ यह पल और अनमोल होगा ,सपने और उड़न भरेंगे और कलम में नया रंग भी ......:)
 

Tuesday, June 19, 2012

मेरी संगिनी ......!

 
1 )मन का हठ
दिल की है तड़प
रूठी कलम .

2)कहाँ से लाऊं
विचारो का प्रवाह
शब्द है ग़ुम.

3)कैसे मनाऊं
कागज कलम को
हाथ से छुठे .

4)मेरी संगिनी
कलम तलवार
पक्की सहेली
5)
प्यासा मन
साहित्य की अगन
ज्ञानपिपासा .
6)
प्यासी धरती
है तपती रेत सी
मेघ बरसो .

7) समंदर के
बीच  रहकर  भी
रहा मै प्यासा .
8 )
अश्क आँखों से
सुख गए है  जैसे 
है रेगिस्तान .
9)
प्यासी ममता
तड़पता आँचल
गोदभराई .

:--शशि पुरवार 


 

Monday, June 18, 2012

तपती जून में.........

चिलचिलाती धूप
चुभती गर्मी
तन मन की
प्यास बढाए.

जलती आँखें
चुभती साँसें
पपड़ाये होठ
बहता घाम
तेज वारा
पवन भी
भरमाए.

जलती धरा पे
पड़ी जो बूंद
भाप बन
उड़ जाए
पथिक को
मिले न चैन
उमस तो
घिर -घिर आए.

बरसो हे ,इन्द्र
रिमझिम -रिमझिम
तपती जून में
थोड़ी सी माटी
की खुशबु
हवा में घुल जाए

बदले जो रूख
हवा का जरा
मौसम खुशगवार
बन जाए
फिजा की
बदली करवट
तन मन की
प्यास बुझाये ...!

:-- शशि पुरवार

Saturday, June 16, 2012

उड़े चिरैया


उड़े चिरैया
पंख फडफडाए
सूख रहे पात
भानू जलाए
जोहे है वाट
बदरा बुलाए...!

बहे न नीर
सूखे झरने ,तालाब
मचा हाहाकार
बंजर होते खेत
किसान बेहाल
फसल कैसे उगाये
घटाएँ जल्दी आ जाएँ ..!

तप रही भू
पवन भी जले
लू के थपेड़े
पंछी , प्राणी पे पड़े
सूखे कंठ
जल को तरसे
तके नभ ,
मेघ बुलाए..!

बदरा जल्दी आ जाए ...!
:_-शशि पुरवार

Tuesday, June 5, 2012

..गंगा स्वर्ग से आई .....!



हुई विदाई
गंगा स्वर्ग से आई
बहे निर्मल .

गंगा का जल
गुणकारी अमृत
पाप नाशक .

शीतल जल
मन हो जाये तृप्त
है गंगाजल .

रोये है गंगा
मैली हुई चादर
मानवी मार .

सिमटी गंगा
मानव काटे अंग
जल बेहाल .

है पुण्य कर्म
किये पाप मिटाओ
गंगा बचाओ .

गंगा पावन
अभियान चलाओ
स्वच्छ बनाओ .

निर्मल गंगा
खुशहाल जीवन
हरी हो धरा .

:------ शशि पुरवार

Saturday, June 2, 2012

शिशु सा मन ....!



आँखों का पानी 
बनावट के फूल 
कच्चे है धागे .

घना कोहरा 
नजरो का है फेर 
गहरी खाई .

रूई सा फाहा 
नजरो में समाया 
उतरी मिस्ट .

कोई न जाने 
दर्द दिल में बंद 
बेटी पराई .

अकेलापन 
मन की उतरन 
अँधेरी रात .


सफ़र संग 
छटती हुई धुंध 
कटु सत्य .

चटक लाल 
प्राकृतिक खुमार    
अमलतास .


तीखी चुभन 
घुमड़ते बादल
तेज रफ़्तार .


खारा लवण
कसैला हुआ मन 
समुद्री जल .

उड़ता पंछी
पिंजरे में जकड़ा 
है परकटा .

तेज हवा में 
सुलगता है दर्द 
जमती बर्फ .

उफना दर्द 
जख्म बने नासूर 
स्वाभिमान के .

शिशु सा मन 
ढूंढता है आँचल 
प्यार से भरा .
     :--शशि पुरवार






 

Tuesday, May 8, 2012

तपन की है प्यास


१) जलता भानु
उष्णता की चुभन
रातें भी नम.

२) रसीली आस
तपन की है प्यास
शीतल जल .

३) कैरी का पना
आम की बादशाई
खूब है भाई .

४ ) बर्फ का गोला
रंगबिरंगी कुल्फी
गर्मी भगाई

५ ) पानी की तंगी
मचा है हाहाकार
गर्मी की मार .

6) वृक्ष रोपण
सुरक्षा का कवच
है हरियाली .
------------------
दो तांका--

१) बीतता पल
सुनहरी डगर
भविष्य निधि
निर्माणधीन आज
कर्म की बढती प्यास .

२) कल की बाते
पीछे छूट जाती है
आने वाला है
भविष्य का प्रहर
नयी है शुरुआत .
-- शशि पुरवार
 
दोस्तो मै बाहर टूर पर होने  के कारण ब्लॉग पर नही आ सकती .वापिस आकर जल्दी ही आप सबसे मिलती हूँ तब तक के लिए आज्ञा दे ......आप सभी के दिन और गर्मियो के पल आनंदमयी हो .......इसी कामना के साथ आपसे विदा लेती हूँ . जून में आपसे मुलाक़ात होगी .
 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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