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Wednesday, February 5, 2020

करारी खुशबू

 अदद करारी खुशबू 

शर्मा जी अपने काम में मस्त  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है।   खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं।   कुछ  गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं।  अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है।  प्रश्न उठा कि नोट  कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का।   हमने तो  बहुत लोगों को  इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है।  ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू  कहाँ से आ रही है। जरा सा  इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि  चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।  

   हमारे शर्मा जी के  दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है।  बड़े प्रेम से लोगों  को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान  परोसते हैं।  कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते।  २-४ लोगों को हाथ में रखते है।  फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं।  आनंद ही आनंद व्याप्त है।  खाने वाले  भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी। 

 फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए।  गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है।  उन्हें  मालूम है  जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  पकवान की खुशबू  में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा  शांत करता है।  आजकल लोगों में  मातृ भक्त  ईमानदारी कण कण में बसी थी।  यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है।  आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।  

   शर्मा जी के भाई  गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है।  वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है।  उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है।  अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना।  यह भी एक कला है जिसे करने के साधना करनी होगी।   

वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है।  कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली।   किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है  और बच्चे भी उनके कायल है।  मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ...  जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो।   हर चीज के रेट फिक्स्ड है।  जब बाजार में इंस्टेंट  वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा  ही करारी हो जाती है।  ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ;  वह भी नारे लगाते रहते है कि  हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती।  विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे - पीछे रहता है।  गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते।  जिजीविषा कम नहीं होती।  नित नए तरीके ढूंढते रहते है। 

 उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है।  उनका डबल फायदा हो रहा था।  असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी।  यानी पांचो उंगलिया घी में थी।  

 एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है।  रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं।  अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा।  भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी। 

 अपनी  रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका  सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए  हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना।  महीने की तय रकम की ५००० रूपए। 

  गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे।  बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में।  यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं।  गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है।  ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और  गऊ  बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते।   दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे ।  करारी खुशबू की अपनी एक अदा है।  जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो। 

 दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन  थे।  इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की  पांचो उँगलियाँ  घी में है और  वह स्वयं सूखी  रोटी खा रही है।  इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है।  भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो  उससे कुछ  भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं  पूरी दाल ही काली है।  खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे।  कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है।  उसके नाम पर  लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे। 

   इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला।  आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी  संहिता लगा दी।  

" इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "

" क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो  "

 " देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "

" झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी।  "

अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे।  सोचा था करीबी रिश्तेदार है।  कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा।  बहुत माल खाने में लगे हुए थे।  पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।  

इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी।  आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ  हर किसी को अपनी दुकान चलानी है।   कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है।  तलब जाती ही नहीं। 

 इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की  जान निकलने  लगी।  गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया।  कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का।  आज इमरती चैन की नींद सो रही थी।  कल का सूरज  नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।      

  गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है।  करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था।  खुशबू को कैद करना नामुमकिन है।  इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया।  भाई होने की दुहाई दी।  रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।

  खुशबू जीत गयी थी।  अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली  और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है।  करारी खुशबू   का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी  कौन दिशा में ले जायेगा।

    यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि  परलोक सिधार गए।  सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी।  उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई।  नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये।  लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे।  उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।  
   
शशि पुरवार 

Monday, May 27, 2019

एक अदद करारी खुशबू



शर्मा जी अपने काम में मस्त  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है।   खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं।   कुछ  गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं।  अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है।  प्रश्न उठा कि नोट  कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का।   हमने तो  बहुत लोगों को  इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है।  ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू  कहाँ से आ रही है। जरा सा  इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि  चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।  

   
हमारे शर्मा जी के  दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है।  बड़े प्रेम से लोगों  को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान  परोसते हैं।  कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते।  २-४ लोगों को हाथ में रखते है।  फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं।  आनंद ही आनंद व्याप्त है।  खाने वाले  भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी। 

 फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए।  गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है।  उन्हें  मालूम है  जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  पकवान की खुशबू  में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा  शांत करता है।  आजकल लोगों में  मातृ भक्त  ईमानदारी कण कण में बसी थी।  यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है।  आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।  

   
शर्मा जी के भाई  गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है।  वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है।  उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है।  अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना।  यह भी एक कला है जिसे करने के लिए साधना करनी होगी।   

वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है।  कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली।   किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है  और बच्चे भी उनके कायल है।  मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ...  जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो।   हर चीज के रेट फिक्स्ड है।  जब बाजार में इंस्टेंट  वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा  ही करारी हो जाती है।  ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ;  वह भी नारे लगाते रहते है कि  हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती।  विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे पीछे रहता है।  गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते।  जिजीविषा कम नहीं होती।  नित नए तरीके ढूंढते रहते है। 

 उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है।  उनका डबल फायदा हो रहा था।  असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी।  यानी पांचो उंगलिया घी में थी।  

 एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है।  रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं।  अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा।  भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी। 

 
अपनी  रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका  सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए  हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना।  महीने की तय रकम की ५००० रूपए। 

 
गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे।  बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में।  यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं।  गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है।  ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और  गऊ  बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते।   दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे ।  करारी खुशबू की अपनी एक अदा है।  जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो। 

 
दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन  थे।  इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की  पांचो उँगलियाँ  घी में है और  वह स्वयं सूखी  रोटी खा रही है।  इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है।  भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो  उससे कुछ  भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं  पूरी दाल ही काली है।  खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे।  कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है।  उसके नाम पर  लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे। 

   
इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला।  आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी  संहिता लगा दी।  

"
इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "

"
क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो  "

 "
देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "

"
झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी।  "

अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे।  सोचा था करीबी रिश्तेदार है।  कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा।  बहुत माल खाने में लगे हुए थे।  पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।  

इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी।  आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ  हर किसी को अपनी दुकान चलानी है।   कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है।  तलब जाती ही नहीं। 

 इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की  जान निकलने  लगी।  गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया।  कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का।  आज इमरती चैन की नींद सो रही थी।  कल का सूरज  नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।      

 
गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है।  करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था।  खुशबू को कैद करना नामुमकिन है।  इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया।  भाई होने की दुहाई दी।  रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।

  खुशबू जीत गयी थी।  अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली  और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है।  करारी खुशबू   का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी  कौन दिशा में ले जायेगा।

    यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि  परलोक सिधार गए।  सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी।  उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई।  नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये।  लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे।  उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।  
   


शशि पुरवार 


Tuesday, April 16, 2019

महामूर्ख सम्मेलन


 मूर्खदेव जयते 

आज महामूर्ख सम्मलेन अपनी पराकाष्ठा पर था।  सम्मलेन में  मौजूद मूर्खो की संख्या देखकर हम सम्मेलन के मुरीद हो गए. हमें  एहसास हुआ कि हम मूर्खानगरी के नागरिक है , दुनिया ही मूर्खो की है तो हम कहाँ से पृथक हुए।  खरबूजे को देख खरबूजा ही रंग बदलता है , किन्तु यहाँ हर रंग अपने सिर पर मूर्खो का ताज सजाने को आमादा है।


 सम्मेलन में शामिल सभी महामूर्खो ने अपनी-अपनी मूर्खता की पराकाष्ठा का परिचय श्रोताओं को दिया।  आयोजन समिति द्वारा सभी गणमान्यों  व जनता से  जुडी  हस्तियों को अलग-अलग अलंकरणों से नवाजा गया।  आयोजन समिति
द्वारा सभी गणमान्यों सहित राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा, समाजसेवा, प्रशासन आदि से जुड़े हस्तियों को अलग-अलग अलंकरणों से नवाजा गया।  राजनेता शंकर  खैनी को महामूर्ख शिरोमणि, शिक्षा में अशिक्षित देवधर  महामूर्ख रत्‍‌नेश्वर,  चिकित्सा में छोला छाप सेवक को मूर्ख  सम्राट,  मूर्ख शिसरोमणि,   महामूर्ख मातर्ड,   मूर्खाधिपति,   मूर्खनंदन आदि अनंत उपाधियाँ लगभग कर कार्य क्षेत्र में बांटी गयी है।  सबकी चर्चा  करने में शर्मा  जी शर्मा रहे थे।  आज पहला अध्याय ही पढ़ने का मन है।

हमारे महामूर्ख शिरोमणि ने सम्मान उपाधि मिलते ही अपने खुशफहम शब्दों व आत्ममुग्धता के द्वारा आवरण की परतें उखाड़ना शुरू कर दी।

   नेता जी बेहद खुश अपने मूर्ख होने की पराकाष्ठा का वर्णन कर रहे थे -
सबरी जनता वाकई मूर्ख है तभी तो जनता को मूर्ख बनाने वाले  नेता का गिरेबान; आज हाथ में आ ही गया।  आज अंततः मूर्ख शिरोमणि की उपाधि से नवाजा जाना; उनके कर्म क्षेत्र का सम्मान है।  वैसे भी कर्म तो कुछ करते नहीं हैं , बस ससुरी जबान का पैसा खातें है लेकिन अब वह जबान भी फिसलती
रहती है।  आज  जब देश पर संकट छाया है तब भी खैनी जी को खैनी खाने से  फुर्सत नहीं  है , बिना बात के बबाल मचा रखा है. पक्ष विपक्ष से ज्यादा चर्चा में रहने के लिए ऐसे बोलबच्चन कहने पड़ते है।   पक्ष क्या बिपक्ष  क्या सभी एक थाली के चट्टे बट्टे है।  आप किसी भी देश में देखें जनता और
सत्ता का सम्बन्ध एक दूजे के साथ सिर्फ पैसा फेंक तमाशा देख जैसा ही है।

  जिसे देखो काटने पर तुला है और बेवक़ूफ़ जनता हर बार मोलभाव करके गद्दी का भार सौंपती है और कुछ ही दिन में उकता कर जमीन पर पड़ी दरी खींचने का भरकस प्रयास करने लगती है।  अब ज्यादा तारीफ़ करने के चक्कर में खैनी जी
की जबान वाकई पूर्णतः फिसलने लगी।

ससुरे बगल वाले का टटुआ दबा देंगे। मारधाड़ में निपुण लोग अपना काम करते रहे। इधर हाल ही में सरहद पर छींटा कशी हुई और पडोसी राज्य के महा मूर्ख  छिपानन्द कहने लगे हमने तो बारिश देखी ही नहीं है; हमारे यहाँ बारिश के कोई निशान शेष नहीं है ।  लो जी उनके सेर को सवा सेर भी मिल गया ,

जनता के मूर्ख सम्राट  सामने आकर बोलबच्चन के मंत्र पढ़ने लगे  :-
आज तेज आंधी तूफान में हमारी फसलें तबाह हुई है।  आकाश पर मंडराते काळा बादल फट गए और यहाँ गड्ढा हो गया। बारिश हुई तो धरती पानी निगल गयी। लेकिन सोना नहीं मिला।  रोज रोज फावड़ा लेकर सोना ढूंढ रहें है , ससुरा मिल जाये तो गुपच लेंगे।


इधर मुर्खाधिपति अपना माइक लेकर सामने आ गए - आज के ताजा समाचार -

यही वह आदमी है जो दिन में भी चार चार फैनी खाकर सोता रहता है। आज जलेबी खाने में लगा हुआ है।  आप इसको हमारे कैमरे में देख सकतें है।  इसका ध्यान दूसरे मूर्खो पर है ही नहीं।  अरे  बादल फटे तो झट से वहां पहुँच गया कि शायद गड्ढे में इसे पुराना पुरखो का धन मिल सकता है।

दूसरे हमारे मूर्ख सम्राट है जिन्हें समझ ही नहीं आता है कि बादल फटने से गड्ढा ही होगा , छप्पन भोग का छींका नहीं फूटा है। जब देखो सम्राट अक्सर धरने पर बैठ जाते हैं ,  साथ ही अन्नपूर्णा माता का अपमान न करते हुए चुपचाप जूस की सिप लगाते रहतें है।


आज सारे अडोसी - पडोसी  मूर्खों के सरताज सम्मलेन में शामिल होने आ रहें है। जब आग जले तो हाथ सेंक  लेना चाहिए।  गेंद  किस पाले में जाएगी वह समय पर तय करेंगे। अभी मूर्ख मणिताज का सवाल है।

इधर दूसरी तरफ महामूर्ख चिंतामणि ने अपने बखान शुरू कर दिए -  

हमने पहले ही कहा था शनि की महादशा है , आज राहु ने अपना घर बदल लिया है , शनि भारी है  उथलपुथल मची रहेगी।  मन को शांत रखें , लाल वस्त्र धारण करें , लाल
ही खाएं , लाली लगाएं , लाल  पिए और  लाल  हो जाएँ।

दिन में दो बार स्नान करें फिर जलपान करें , पडोसी को जल देना बंद करे इससे आपके घर में जल संचय होगा , फिर उसे बाँटना।  मंगल  भड़क  सकता है ; सूर्य पश्चिम में घूमने गएँ है ;  चंद्र आपको दर्शन देंगे , आज ताज को सर पर धारण रखें शीघ्र परीक्षा का निकाल होगा।  आज खेल आर या पार होगा।  हम
ही जीतेंगे।  ऐसी उच्च कोटि  के विचार छोटे से दिमाग में समां ही नहीं
रहे थे।
हमने जिज्ञासा वश प्रश्न उछाल दिया - प्रभु आगे का संक्षिप्त में हाल  बताएं - ताज किसे मिलेगा या नहीं।


उत्तर मिला - अभी  फिल्म जारी है ; आप अपना ध्यान केंद्रित करें ,
यह मंत्र पढ़ने से आप जल्दी मूर्ख बनने की प्रक्रिया पूर्ण करेंगे और आपको जल्दी ही मोती जड़ित शिरोमणि  से नवाजा जायेगा।

ओम मूर्ख मुर्खस्वः, तस्सः मुखर मुरेनियम
मूर्खो देवस्वः धी महि. दियो मोह न मूर्खो दयाः

मूर्ख देव जयते। मूर्ख: मूर्खो : स्वाहा


शशि पुरवार

Friday, September 7, 2018

जंगल में मंगल

इस साल दशहरा मैदान पर रावण जलाने की तैयारियां बड़े जोर शोर से की जा रहीं थी. पहले तो कई दिनों तक रामलीला होती थी फिर रावण दहन किया जाता था. अब काहे की राम लीला काहे का रावण, अब तो बस जगंल में मंगल है. राम भरोसे के भरोसे सारा रावण दहन हो जाता है. राम भरोसे नाम की ही नहीं काम का भी राम भरोसे है. पंडाल का काम हो या जनता की सेवा राम भरोसे के बिना पत्ता नहीं हिलता है. हर बार जेबें गर्म, मुख में पान का बीड़ा रहता था किन्तु इस बार जैसे उसके माई बाप आपस में गुथम गुथम कर रहें हैं.  बड़े बेमन  से वह रावण दहन के कार्य में हिस्सा ले रहे थे. मित्र सेवक राम से रहा नहीं गया बोले – भाई इतने ठन्डे क्यूँ हो क्या हुआ है .

अब का कहे देश में रावण राज्य ही चल रहा है. जिसे देखों, जब देखो हर पल गुटर गूं करते रहते हैं.

क्यूँ, भाई क्या हुआ.

अब पहले जैस बात कहाँ है, यह दशहरा पर मैदान बड़ा गुलजार रहता था, रामायण के पात्र समाज को अच्छा सन्देश देते थे. राम हजारो में थे तो रावण एक, कलयुग में राम ढूँढने से भी नहीं मिलते हैं. सबरे के सबरे रावण है. कल तक रामभरोसे थे अब सारा दूध पी लिया और रामभरोसे को राम के भरोसे ही छोड़ दिया.

हाँ भाई सच कहत हो, देखो राम जी तो चले गए लेकिन आज के रावण राम मंदिर के नाम पर आज भी अयोध्या जलाते हैं.
और नहीं तो का, जनता की कौन सोचत है  सभी अपना अपना चूल्हा जलाते है और अपनी अपनी रोटी सेकतें हैं. धुआं तो जनता की आँखों में धोका जात है.

इतने वर्ष हो गए हमने कोई जात पात नहीं मानी, सभी  धर्म के लिए ईमानदारी से काम किया, किन्तु अब कोई हमें पानी भी नहीं पिलाता है. आजकल काहे का रावण काहे की माफ़ी, प्रदुषण पर बैन है, तो जाने दो मन का रावण जला दे वही बहुत है.  ऐसे कलयुगी रावण का क्या किया जाये, गॉंव में काँव काँव शुरू रहती है..... शहर में धम्म धम्मा धम्म, ऐसी मौज मस्ती जैसे अपने घर के बगीचे में टहल रहें है और घर के बर्तन बाहर जाकर नगाड़ा बजाते है. ई दशहरा भी कोई राजनीती होगी. सब धर्म के नाम फरमान जारी होंगे, कुछ लाला अपना कन्धा सकेंगे. थोड़े बर्तन बजायेंगे और डाक्टर नयी फ़ौज को जमा करने  के लिए तैयार रहेंगे, लो जी हो गया दशहरा. फिर से राम ही रावण बनकर आपस में लड़ रहे हैं. तो जीतने वाला भी रावण ही होगा. बस हाल होगा तो बेचारे राम भरोसे का, जो राम के भरोसे ही पेट की आग शांत करने का प्रयास करता है और अब वह न घर का रहा है न घाट का. अब कलयुग है तो कलयुग के राम सूट बूट वाले है. वह अपनी सेना को नहीं खुद को ही ज्यादा देखते हैं. त्रेता युग में जो हो गया सो हो गया, आज वह के राम बने रावण वनवास जाते नही है, विभीषण को भेज देते हैं. आखिर वही ततो आया था उनके पास भोजन मांगने.

      अब कोई त्यौहार पहले जैसा नहीं रहा, घर में बैठकर दो चार घंटे टीवी देख लो. अभाशी दुनिया घूम लो, ट्विटर से जबाब तलब कर लो, हो गया दशहरा. फिर काहे इतना पैसा एक रावण को जलाने में लगायें, लाखो लोगों के पेट भर खाना खिला दे तो पुन्य तो मिलेगा, इस देश में न जाने कितने विभीषण अभी भी है जो त्रेता युग के राम भरोसे ही अपना धर्म निभा रहें हैं.
  शशि पुरवार


Monday, May 14, 2018

विचारों में मिलावट

वक़्त बदल गया है। विचारों में भी मिलावट हो रही है।  साहित्य व व्यंग्य भी खालिस नहीं रहा। हर तरफ मिलावट ही मिलावट है।  मिलावट कहाँ नहीं है ... विचार, साहित्य,व्यंग्य, राजनीति विज्ञान ,संचार माध्यम  ..... ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं है जो मिलावट से ग्रस्त न हो। अब आप सोचेंगे इनमे  मिलावट कैसे हो सकती है।  दूषित विचार अपना प्रभाव दिखातें ही है।  हर कोई अपनी काली कामना पूर्ति में लगा हुआ है। यौन पिपासा, कामुक विचार हमारे तथाकथित खुलेपन और पोर्न तस्वीरों की देन हैं। भोजन अशुद्ध होगा तो विचार भी अशुद्ध आएंगे। शाकाहारी छोड़ माँसाहार का सेवन आखिर पशु के हार्मोन आप अपने शरीर में डाल रहें है। दिमाग भी पशु की तरह इधर उधर मुँह मारेगा ही। पशु व इंसान में फर्क ही कहाँ बचा।  प्रकृति में जो है उसे नष्ट करना मानव ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना लिया है। मानवी अंग भी कृतिम बनाकर लगाए जाते है।  वास्तविकता कहाँ शेष है।
  
             मिलावट का दायरा बढ़ने लगा है।  दुष्कर्म, क्राइम, चालबाजी इतनी बढ़ गयी है कि किसी सच्चे इंसान को भी हम अपनी मिलावटी नजर से देखने लगे हैं। वैसे आज के समय सच्चा इंसान भी दूरबीन लेकर खोजना होगा।  घर के बड़े बुजुर्ग हो या अपना - पराया।  हर कोई आँखों में खटक रहा है।  मीडिया भी वही परोस रही है, जो न सीखें हो वह भी देखकर सीख जाएँ। समाज को दिमागी फितूर की आदत इस मिलावटी दुनियां ने डाली है.  मिलावट ने इतना प्रचंड रूप  धारण किया है कि हमें हर व्यक्ति मिलावटी लगने लगा है। दुष्कर्मी कृत्य करके उसे धर्म का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है।  अब महिला और पुरुष  धर्मानुसार शारीरिक बनावट पृथक कैसे हुई, यह गुत्थी समझ नहीं आयी। धर्मानुसार नाक कान अलग अलग होते हैं ?  यह उनकी जगह बदल जाती है। यह सुनने के बाद मन में विचार आया कि धर्म के अनुसार शरीर का अध्यन भी किया जाये।  
        
         आज मन में ख्याल आया कि कभी एक समय था जब हम विशुद्ध खाद्य सामग्री का उपयोग करते थे। हर तरफ खुशहाली थी।  लहलहाती फसलों  के साथ लहलहाते रिश्ते भी थे। सुविधा के साधन कम थे किन्तु मन को सुकून ज्यादा था।  पुरानी पीढ़ी ने हमें विश्वास, सुरक्षा और  अपनत्व प्रदान किया किन्तु न जाने कहाँ चूक हो गयी।  इंसान ज्यादा चतुर हो गया। अनाज व धान्यों में कंकर मिलाना शौक बन गया। दूध में पानी मिलाने लगे. धीरे धीरे कमोवेश सभी खाद्य सामग्री मिलावट के घेरे में आ गयी।  आज पानी में  दूध मिलातें हैं।  हद तो तब हो गयी जब पानी में रंग शक्कर मिला कर दूध ही बना लिया। दूध में झाग बनाने के लिए रासायिनक पाउडर मिलाने लगे।  किसी की जान जाये फर्क नहीं, माल हाथ आये की तर्ज शुरू हो गयी।  

        सामग्री में मिलावट की बात विचारों में जन्मी थी तो सौ प्रतिशत सारा झोल विचारों में ही था। फल सब्जियों में रसायन - रंग की मिलावट तो गाय - भैंस को इंजेक्शन लगाकर उनका ही जीवन रस निचोड़ रहें है। लालच ने अँधा कर दिया था।  

शर्मनाक है कि आज  रिश्तों को भय व असुरक्षा की भावना से ग्रसित करके तार तार कर दिया है। दूषित मानसिकता के कारण  भय के बादल मँडराते रहतें है। बच्चे बचपना भूल गए हैं।  कभी माटी में खेलने वाले बच्चे आज  पैदा होते ही मोबाइल से खेलते हैं।  माटी की खुशबु की जगह तरंगो की मिलावटी  खुशबु दिमाग में रस बस जाती है। बचपन सलोनापन छोड़कर जल्दी युवा बन जाता है।  दिमागी रसायन में परिवर्तन हमारी मिलावटी वस्तुओं का ही असर है।  दिमाग में भी रसायन मिलावटी कर रहे हैं। पल में खुश व पल में खूंखार।  जाने कैसे कैसे फितूर दिमाग को व्यस्त करके तरक्की का जामा पहनाने में लगे हुए हैं। 

               हर कोई चारो तरफ से चादर खींचने में लगा हुआ है। चादर तो किसी के हाथ आती नहीं  है अपितु फट जरूर जाती है।  कमोवेश यही हाल व्यंग्य व साहित्य जगत को भी अपनी लाग लपेट में ले चुका है।  साहित्य में मिलावट सुनने में बहुत अजीब लगता है।  किन्तु सत्य है जब से सोशल मीडिया आया है विचारों का मिलावटी रायता फैलने लगा है। हर कोई उस रायते को चटकारे लेकर खा रहा है।  बची कुछ नमक मिर्च डालकर उसे चटपटा बनाने का कार्य दिमागी फितूर कर ही देते हैं। 

जहाँ मिलावट के कई नमूने गुणधर्म के साथ मौजूद है। यदि कोई व्यक्ति चाहे तो यहाँ दिमागी फितरतों की पी एच डी कर सकता है। कई विशुद्ध साहित्यकारों की रचनाएँ  चोरी करके, चोर भी अशुद्ध  साहित्यकार बनकर वाह वाही  लूट रहें हैं।  विचारों को चुराकर मिलावट के साथ परोस दिया जाता है।  असली नकली का भेद करना मुश्किल हो गया है। गीत - नवगीत - नयी कविता वाले अपनी अपनी चादर खींचने में लगे है।  मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है।  छंद में गद्य घुसने लगा है। व्यंग्य में सपाटबयानी आने लगी है।  संगीत में भी मिलावटी  हो रही है। सभी मिलावट को मॉर्डन कपड़ों का जामा पहनकर हाथों को सेका जा रहा है।  संगीत की मधुरता में भौंडेपन व कर्कश शोरों का मिश्रण हो गया है।  आज इन चोरो 
की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि पहचानना मुश्किल है सच्चा कौन।  इसका रायता फैलाने में सोशल मीडिया  महामहिम बनकर उभरी है।  जो लोगों को एडा बनाकर पेड़ा खा रही है। वित्त करेंसी  भी मिलावट से परहेज नहीं कर सकी. जब नए नोट चलन में आये तो वह  हाथों को रँगने लगे। सोना - हीरा भी मिलावट हो गया है।  आज नकली  चमक ही असली लगती है। 
     
           एक बार की बात है हम बस में सफर कर रहें है।  एक भद्र महिला सोने के आभूषण पहने थी। चलती बस में एक गुंडा हाथ में चाकू लेकर खड़ा हो गया।  उस भद्र महिला से बोला -  गहने दे वर्ना मार दूँगा।  ऐसा कहकर गहने छीनने का प्रयत्न करने लगा।  यह सब कांड देखकर मन में भय उत्पन्न हुआ।  हम हमारी सोने की चेन सँभालने का प्रयत्न करने लगे।  तभी उस महिला ने कहा  अरे भाई रुको -- ४० रूपए की चीज के लिए क्यों मेरे प्राण ले रहे हो।  सब गहने उतारकर दे दिए।  बेचारा गुंडा पोपट जैसा हो गया।  मिलावट किसी की जान भी बचा सकती है देखकर तसल्ली हुई। बाद में महिला से ज्ञात हुआ २ नकली था एक असली किन्तु सब वापिस मिल गया। नकली में भी दम हैं। असल नक़ल को पहचाना मुश्किल होता है। पहले राजशाही लोग सोना हीरा पहनते थे , आज सोना हीरा भी मिलावट बन गया है।  जिसे हर कोई पहनता है. अब अंतर करना मुश्किल है कौन अमीर कौन गरीब। इस मिलावट ने ऊँच - नीच का भेद जरूर  समाप्त कर दिया है। 

        गहनों तक तो ठीक था।  कुछ भी पहनों चोरी का डर नहीं।  वैसे भी कारोबारी कौन सा असली बेच रहें है। हम भी खुद हो बेबकूफ बनाते हैं। मापदंड बदलने लगे हैं।  धर्म - जाति प्रदेश - राष्ट्र हर जगह कुर्सी भी मिलावट का कारोबार करने लगी है।नेता अपनी कुर्सी देखकर कुर्सी धर्म ऐसे बदलते हैं जैसे कपडे बदल रहें हों। अब तो हमें भी लगने लगा कि  हमारे विचारों में भी मिलावट होने लगी है।गीत लिखने  बैठो  गजल बन जाती है। गद्य लिखने बैठो पद्य बनने लगा।  व्यंग्य 
लिखों तो व्यंग्य में मिश्रण के कारन चरमोत्कर्ष नहीं होता है। विचारों में ताजगी लाने के लिए अब हमने घर में ही खेती शुरू कर दी है , विशुद्ध भोजन करके हार्मोन की मिलवाट का प्रभाव कुछ कम हो सकेरायता बनाने वाले बैठे थे किन्तु खिचड़ी बन गयी। देश समाज में फैले हुए कंकर आँखों में चुभने लगे हैं। कलम की स्याही में मिलावट  के कारण कलम भी अवरुद्ध हो जाती है। भाई आज जैसा भी कलम का स्यापा भोजन है खाकर हमें माफ़ जरूर करना।  कल एक दुकान दिखी हैसच कहूं उसके सपने भी अब सोने नहीं देतेदबंद मिलावट।  गली नंबर चोरखेचरी बाजारयहाँ सर्वप्रकार का विशुद्ध मिलावटी सामान मौजूद हैपन्नू काका पंसारी वाले। वाकई दुनिया  तरक्की पर है।  
शशि पुरवार 

 
 जनसंदेश टाइम्स लखनऊ समाचार पत्र के प्रकाशित व्यंग्य - दिनांक - १३ /०५ /२०१८ 


Sunday, April 1, 2018

मूर्ख दिवस



 मूर्ख दिवस 
आज सुबह से मन उतावला हो रहा था।  बच्चों की ऊधम पट्टी से यह समझ आ गया कि कल  १ अप्रैल हैं।  भला हो बच्चों का, नहीं तो अपनी बैंड बजना तय थी। बच्चे ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देतें हैं।  घर वाले घर में भी टोपी पहनाना नहीं भूलतें हैं।  आज शर्मा जी बड़े जोर शोर से टहल कदमी कर रहे थे।  भाई बचपन में खूब अप्रैल फूल बनाया और बने भी, पर कहतें  हैं  कि इंसान कितना भी बड़ा हो जाये बच्चों वाली हरकतें करना कभी नहीं छोड़ता, पहले हाफ निक्कर पहनकर  मूर्ख बनाते थे ,अब फुल पेंट पहनकर मूर्ख बनाएंगे, यह बात अलग है मुख में पान गिल्लोरी दबाए मियां कैसे नजर आतें है।  

         बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप बड़ो को भी चस्का लगा हुआ है।  शर्मा जी यही सोचन रहे का करें कछु तो करन ही पड़े, इस बार मोबाइल से अंतरजाल पर बेबकूफ बनाएंगे, कौन  ससुरा हमें जानत है जो हमरे घर कदम ताल करके  आवेगा। वइसन भी आजकल सबरे त्यौहार सिमट कर कमरे में बंद हो गएँ हैं बस उँगलियाँ,   मोबाइल और लैपटॉप पर चलते - चलते  सभी त्यौहार मना लेती हैं। 

            मूर्ख  दिवस मनाना भला किसे पसंद  नहीं होगा। व्यस्त जिंदगी में रस घोलती अनुभूतियाँ लोगों की प्यारी - दुलारी बन जातीं हैं।  यह किसी त्यौहार से कम नहीं  है।

 अहा !१ अप्रैल जैसे अपने अरमान पूरे करने का दिन। इस दिन का इन्तजार हर छोटे-बड़ों को रहता है। एक ही तो दिन होता है जब जो चाहे वह करो।  यानि किसी को भी मूर्ख बनाओ कोई कुछ नहीं कहेगा। यह मूर्ख बनाने का लाइसेंस जो प्राप्त हो गया है।  हाँ मूर्ख बनने वाला जरुर  झेंप जाता है कि लोगों को ज्ञात हो गया वह भी बेवकूफ है। इसके एवज में कोई क्रोध में लाल पीला होता है।  तो कोई खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोचते नजर आता है।   हंसने-हँसाने यह दिन यानि १ अप्रैल।  जिसे दुनियाँ मूर्ख दिवस के नाम से जानती है। 

                एक अप्रैल का दिन सभी के लिए खासम खास है। भाई दिमाग की कितनी मस्सकत करनी पड़ती है।  मजाल है एक दॉंव छूटा  तो दूसरा तैयार !  किसे कैसे बेवकूफ बनाया जाये कहीं यह ना हो कि दॉंव ही उल्टा पड़ जाये और हम खुद ही अपने खोदे हुए गड्ढे में गिर जायें। 
         कैसे कहें कि  यदि  लोगों को मूर्ख नहीं बनाया तो खुद के पेट में दर्द होने लगेगा।  आखिर मूर्ख बनना और बनाना  हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मूर्ख  बनाने का लाइसेंस, यह बात पल्ले नहीं पड़ी कि मूर्ख दिवस मनाने की ऐसी क्या जरुरत आन पड़ी है।  क्या मूर्खो को देश में कोई स्थान दिलाना है या उनका आरक्षण करवाना है। कोई कानून पास करना है या मूर्खो की सरकार बनाना है। वैसे भी सभी, कहीं ना कहीं मूर्खता पूर्ण कार्य जरुर करतें हैं। तो यह कहना उचित होगा कि सभी के अन्दर एक मूर्ख  विद्यमान होता है। किसी के मन में भी यह ख्याल क्यूँ नहीं आया  कि मूर्खो को भी आरक्षण दिलाना चाहिए।  आखिर वह भी इसके हकदार है। 
             
मन का उत्साह हिलोरे मार मार कर तन को रोमांचित कर रहा  था। हम भी सोच रहें है इस बार कुछ अलग किया जाये।  क्यों ना मिडिया के बादशाह फेसबुक या ट्विटर पर कुछ लिखकर लोगों में हल्ला बोल कराया जाए।  मोदी राज है।  सभी को पूरी आजादी है। जनता भी हाईटेक बनने वाली है।  गॉंव गॉंव में इंटरनेट  और मोबाइल हर आदमी को शहर से जोड़ देंगे।  फिर कहाँ  गॉंव,  कहाँ शहर। सब एक ही डोर से बंधे हुए रस्सी खीचेंगे। कभी कभी ख्याल आता है कि एक मूर्ख सम्मलेन की तैयारी की जाय।   मूर्खों का यह सम्मलेन  रोमंचकारी अनुभव होगा। यह सम्मलेन पहले दूरदर्शन पर और हर शहर में मनाया जाता था।  हमरे गॉंव में भी होता है जो विजेता बना उसे जूते - चप्पल की माला पहना कर सम्मानित किया।  शहरी हाईटेक संस्कृति को यह सब नहीं भायेगा। आखिर वक़्त बदल गया है। इसीलिए कुछ अलग करना चाहिए। दिमाग के घोड़े दौड़ाकर तय किया।  कुछ मिर्च मसाला लिखकर दुनिया को ही मूर्ख बनायें।  जितने ज्यादा लाइक और कमेंट्स आएंगे उतना ही हमारा खून  बढ़ जायेगा और हम मूर्खों के बादशाह कहलायेंगे।
 
मुर्ख दिवस हमारी संस्कृति की देन नहीं है।  इस दिवस को लेकर कई अवधारणाएं प्रचलित हैं।  रोम के लोग १ अप्रैल को नव वर्ष के रूप में मनाते थे। किसी ने उस दिन का केलेंडर स्वीकार किया तो किसी ने उस केलेंडर को अस्वीकार कर दिया।  कहा जाता है कि लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए  राजा – रानी ने अपनी शादी की तारीख ३२ मार्च करने की घोषणा की थी।  तभी से इस दिन को मूर्ख दिवस के रूप में मनाया जाता है। 
 
 यह भी मजेदार है  किसी मूर्ख को कह दो कि तुम मूर्ख हो।  तो बेचारा आँखे फाड़ फाड़ कर ऐसे देखेगा जैंसे हमरे दिमाग का स्क्रू ही ढीला  हो गया हो। वैसे ही जैसे, किसी  कुत्ते को कुत्ता कहना कुत्ते अपमान है।  ऐसा महसूस होता है  जैसे हम गाली दे रहें है।  भले ही बेचारे कुत्ते को भी पता नहीं होगा कि कुत्ता कहना  गाली होती है।   बेचारा कुत्ता भी ना जाने किस बात की सजा भुगत रहा है।  अच्छा भले  आदमी की वफादारी  करता है और इनाम स्वरुप बेचारे कुत्ते  का नाम ख़राब कर दिया। 
   मसखरी करने का यह दिन सभी खुले मन से स्वीकारतें हैं। १ अप्रैल है तो बुरा भी नहीं लगेगा। जैसे बुरा ना मानो होली है।  वैसे ही बुरा न मानो  मूर्ख दिवस है। हँसी - ठिठोली, मौज मस्ती का भरपूर आनंद।  किसी की शर्ट पर लिखा है।  हिट मी – तो बेचारे को जाकर मार दिया। 

चॉकलेट के रेपर में पत्थर रख दिया तो अप्रैल फूल। आनंद उठाने के लिए रसगुल्ले और मिठाई में लाल मिर्ची भर दी। फिर लाल पीले होने का आनंद । रात हमने सड़क पर १०० रूपए के नोट को  काले धागे से  बांधकर सड़क पर रख दिया। जो बेचारा लालच का मारा  नोट उठाने का प्रयत्न करता,  तो  धागा खींचकर  बेचारे के सामने प्रगट होकर  हँसी का फव्वारा छोड़ दिया। बेचारा मिस्टर एक्स ने खुद की नजर बचाकर  दुम  दबा ली। थोडा झूठ बोला।  थोड़ा  परेशान किया और कह दिया अप्रैल फूल. ! चलो कोई तो फूल खिला है।  लाल- पीले- नीले - गुलाब  नहीं गोभी के फूल नहीं यह तो अप्रैल के फूल है जो भरी जेठ में भी गुदगुदाने का आनंद प्रदान करतें हैं।
शशि  पुरवार

Tuesday, March 20, 2018

मूर्खता की परछाई

समय के साथ सब बदल जाता है।  यह परम सत्य है। आदमी पहले दूसरों को मूर्ख बनाता था।  आज खुद को  मूर्ख बनाता है। आज मेरी मुलाकात अपनी ही परछाई से हो गयी।  अब आप कहेंगे मूर्ख है। कोई  परछाई से भी मिलता है। लेकिन हम मिले और जी भर कर मिले। जाने दीजिये आप सोचेंगे। आज सच में एक मूर्ख से पाला पड़ गया है। हमें क्या आप सोचते रहें। इंसान मूर्ख ही तो है।  आज स्वयं को मूर्ख कहने में हमें कोई कोताही नहीं। आभाषी दुनियां के मूर्खता पूर्ण व्यवहार ने हमें होशियारी सीखा दी है।हम कितने सीधे हैं।  लोग लल्लू भी है होसियार भी है।जब लम्बे समय से जुड़े  हुए लोग पूछते है। आप कौन है। क्या करतें है। सच पूछों दिल में छुरियां चल जाती है।क्या  कभी पढ़ते नहीं है। बस आजकल गप्पा बाजी करना ही शौक बन गया है।  खुद को उच्च कोटि का साबित करने के लिए बार बार बिना सिर पैर  की बात के बात करतें है। खैर जाने दीजिये।  आज मेरी परछाई ने मुझे ही मूर्ख कह दिया। हुआ यूँ -

 मेरी परछाई कैसी हो?
 प्रश्न अजीब था।  किन्तु तीर तरकश से निकल चुका था। वैसे भी हम जाने माने साहित्यकार है तो परछाई भी वही हुई। किन्तु उसने हमीं पर पलटवार किया।

 कितना स्यापा फैला रखा है। काम के न काज के।  बस दिन भर उजुल फुजूल लिखकर लोगों को बरगलाते हो।  कोई काम धाम नहीं है क्या ? किसे मूर्ख बनाते हो। खुद को।

जबाब सीधे दिल को भेद गया। घर में कोई बकर बकर नहीं सुनता तो हमने भी दुनिया को सुनाकर खुद को महान बना लिया। ससुरा आज तक किसी ने तारीफ नहीं की है। घर में पत्नी बच्चे, माँ - बाप के लिए  हम नकारा थे। कहतें हैं घर की मुर्गी दाल बराबर। सो थाली में कभी दाल  भी नहीं मिलती थी। हमने सोचा उल्लू क्या जाने अदरक का स्वाद। आज इंसान ने मूर्खता के पैमाने छलका दिए हैं। इस विचार ने हमें असीम शांति प्रदान की। किन्तु हमारी परछाई थी तो सत्य कैसे ना जानती। आज हमारे मूर्खता पूर्ण प्रश्न ने हमें मूर्ख सिद्ध कर दिया। 

 वैसे मूर्खता के कई प्रकार होते हैं। एक परिभाषा में मूर्खता को कैसे परिभाषित करें।  खुशफहमी मूर्खता को सर्वोपरि बनाती है। खुद का प्रचार करो, विज्ञापन करो और खुद को महान समझो।  हमारे इर्द गिर्द नजर  घुमाये ऐसे मूर्खो की भरमार है।  शर्मा जी जब देखो ऊँट की गर्दन ताने घूमते रहतें है।  सुना है बहुत बड़ा काम किए है।  किन्तु अडोसी पडोसी को पता भी नहीं है।  सो ससुरे उनके बुद्धिजीवी दिमाग को क्या जाने।  वो ऐसे तने रहतें है जैसे दुनियाँ भर का बोझ उन्हीं के सर पर है।  एक बार  सिंह अंकल हमें  बगीचे में मिल गए थे।  और बोले लल्ला क्या करतें हो
हमने लगे हाथो कह दिया - कवी है

कवी क्या होता है।  बेचारी दुखियारी आत्मा।

हमारा चौड़ा सीना सिकुड़ कर पिचके गुब्बारे सा हो गया।समाज का यही दोष है दूसरों की पतंग काटो और आनंद लो। सभी  रिश्ते  आभासी होने लगे।  खुद को महान समझने वाले मूर्ख अहंकार में एक दूसरे से कन्नी काटतें हैं। खुद की चार दीवारी में कैद अकेलेपन के साथी ऊँट की गर्दन ताने फिरते हैं।  किसी से बात करने के लिए गर्दन नीचे करनी होती है। जो कोई करेगा नहीं। हम आजतक इस दुनियादारी को समझ नहीं सके कि गर्दन ऊँची क्यों है।

   कल एक गोष्ठी में देखा शर्मा जी तन कर बैठे हुए थे।  अडोसी - पडोसी उनके कर्मो के बारे में नहीं जानते थे।  वे विशुद्ध लेखक थे। उजुल फिजूल लिखते लिखते खुद को महान लेखक बना लिया। बड़ी अदा से घूमते थे। जैसे वही अक्ल दराज बाकी मूर्खो की बारात। खुशफहमी  इंसान को जिंदादिल बना देती है।  कम से कम सर में शंका का चूरन रखने से खुशफहमी का तेल लगाना ज्यादा अच्छा  है। हम शर्मा जी को देखते ही  रह गए। कितनी  बड़ी हस्ती बन गए।  लोग एक फोटो चिपकाने के लिए तरसने है। एक तो चिपका ही दो। शर्मा जी खुश है। किन्तु उन्हें क्या पता लोग उनका उपयोग किये जा रहे हैं।फोटो शर्मा जी की चिपका कर अपना प्रचार कर रहें है।  जे हमरे खास मित्र  है तो हम भी खास बन गए।लोग एक दूसरे के कंधे पर पैर रखकर चढ़ने लगे है।  बेहद खुश है  कि हमने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। 

   आजकल हमारे एक मित्र जिन्हें  हमसे बेहद मोहब्बत है।  जब देखो हमारी  भाषा - विचारों को चुराते रहते हैं।खुद को महान सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहतें है। चोरी करके महान बन गए। उन्हें  आभासी दुनिया में  कह दिया मेरी रचना है तो झट से ब्लॉक  कर दिया।  एक दूसरे को उल्लू बनाने से अच्छा है खुद को उल्लू बना लो।हमने सोचा रचना चोरी की है गुण नहीं। खुद को खुश कर लिया।  

 अब ज्यादा क्या कहें। यही कहेंगे  खुद को मूर्ख  बनाना अपने स्वास्थ के लिए लाभदायक होता है।  हम तो यही कहेंगे खुद को खूब मूर्ख बनाओ। इसमें परमानन्द है। आप कहेंगे कैसे तो सुने -

 खुद को महान समझने से आप कुछ महान कार्य करने का प्रयास  करेंगे।इससे  आप व्यस्त रहेंगे।  कुछ अच्छा कार्य करेंगे। 
 खुद को देखने - समझने के आदी हो जायेंगे तो दूसरों की बातों पर ध्यान नहीं जायेगा।  बिन सिरपैर की बातों को नजरअंदाज करेंगे तो बीपी शुगर जैसी बिमारी कोसो दूर होगी।
  किसी बात की चिंता नहीं होगी क्यूँगी आप खास है , दूसरो को मूर्ख जरूर समझे। यह खुशफहमी आपको खुश रखेगी।  
  एक दूसरे को मूर्ख समझने की प्रथा से कुंठा, द्वेष, जलन से मुक्ति मिलेगी। और आप खुश फ़हम रहेंगे। 
 आपको अकेले में भी आनंद आने लगेगा।  घर वाले आपके कोप का भाजन नहीं होंगे।
 दोस्त, यार,  हमजोली  आपके मूर्खता को बुद्धिजीवी सा  मान देंगे।
 कोई सुने य ना सुने आप खुद को जरूर सुनेंगे।
 हर तरफ परमानन्द होगा। लोगों की छींटाकसी पर आप मुस्कुरायेंगे और अपनी मूर्खता का ख़िताब उन्हें दे देंगे कि मूर्ख है।  समझता नहीं है।
  तो खुशफहमी को पहनते रहें।  खुद को मूर्ख बनाते रहें।  जिंदादिली दिखाते रहें।
खुद को लोगों को झेलने का सुख देते रहें।खुद भी हम मित्रों को झेलते रहे।  

सभी हार्मोन कुशलता से कार्य करेंगे।  खुश फहमी बीमारी से मुक्ति दिलाएगी।  आप मुस्कुरायेंगे तो हम भी मुस्कुरायेंगे।  शुक्रिया आपने हमारी मूर्खता को तवज्जो दी।  मुर्खानंद की जय हो। 
शशि पुरवार 

जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित व्यंग्य 



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